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के मुँह खोल दो। आप लोग लक्ष्मी के ट्रस्टी हो । लक्ष्मी समाज की है। गरीब भाई बहिनों की सुध लो। उनकी पीड़ा समझो।'
श्री दसवेकालिक सूत्र का उल्लेख करते हुए कहा
'असंविभागी न हु तस्स मोक्खी'
बाँटता नहीं हैं, उसकी मुक्ति नहीं होती ।'
अपनी प्लाटिनम जुबली (७५वा जन्मदिन, गुजराँवाला) : उस दिन एकत्र जन समूह को बहुत ही मार्मिक शब्दों में संबोधन करते हुये कहा
... पंजाव वालो, मैं आज आप लोगों से माँगता हूँ। मुझे बस दो चीजें दे दो । लडके लडकी की सगाई पर शगुन लेन-देन में सिर्फ पाँच रूपये और पाँच सेर लड्डू दिया- लिया करें।"
समाज में मर्यादा बाँधने के लिये कहा
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रहेगा।"
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यानि जो प्राप्त सामग्री को साथियों में
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'बाल वृद्ध कुयोग्य लगन, मर्यादा से बाहर'
पूरे समाज को आपसी प्रेम, एकता और भाईचारा के सूत्र में पिरोने के लिए पूना से जम्मु तक श्री आत्मानंद जैन सभा के एक ही नाम की सभाएँ स्थापित कराई। सामाना, साढौरा, रोपड, बडौत, विनौली, रायकोट व सयालकोट आदि नगरों में मंदिरों की प्रतिष्टाएँ करवा कर सुसंगठित श्री संघो की स्थापना, आपके बुद्धि, कौशल के उज्ज्वल उदाहरण हैं।
अनेक अवसरों पर वे कहा करते थे
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'समाज जिंदा रहेगा, तो धर्म जिंदा
विश्व शांति
२६०० वर्ष पहले भगवान महावीर ने विश्वशांति के लिए 'मित्ति से सव्व भूयेसु...' सारे प्राणी मेरे मित्र हैं... का उपदेश देकर विश्वशांति का मार्ग प्रशस्त किया था। उसी समानता, शांति और मैत्री की भावना का प्रस्फुटन हुआ आचार्य विजयवल्लभ के जीवन में।
सन् १९५२ में कोरिया का युद्ध शुरू हुआ तो तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा मँडराने लगा था। चौपाटी के मैदान पर वर्ल्ड पीस कांग्रेस के आयोजन में उपस्थित विशाल मानवमेदनी को संबोधित करते हुए विजय वल्लभ ने कहा था
'यद्यपि में एक संप्रदाय विशेष का आचार्य हूँ, पर यदि हम वास्तव में सारे विश्व में सत्य और अहिंसा के द्वारा शांति स्थापित करना चाहते हैं, तो हमें साम्प्रदायिकता को भूल कर मानवता की दृष्टि से सोचना पडेगा । विश्वशांति के लिए हमें अपने संकीर्ण सम्प्रदायवादी विचारों को तिलांजलि देनी होगी। साथ ही हमें सोचना पडेगा कि विश्वशांति किन ठोस उपायों से स्थापित हो सकती है। उस समय हमें यह न सोचना है कि हम जैन हैं, बौद्ध हैं, मुसलमान हैं, पारसी अथवा
आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ६७