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प्रतिष्टा के पश्चात् ।
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संघ सिन्धु स्थान स्थान पर ठहरता था, पैर पैर पर पादचर चलते थे । मनुष्यों और घोड़ों की भीड़ के कारण आने जाने के रास्ते रुके हुए थे। जिन शासन की विजय वैजंती फहरा रही थी । सोमेश्वरदेव के दर्शन कर कबडीबार जलनिधि को अवलोकन कर संघ प्रियमेल से उतरा | चंद्रप्रभु की पूजा कर, कुसुम करंडा पूजा रच जिन भवन में उत्सव किया गया । शिव देवल में पञ्चरंगी महा जा दी गई।
प्रबंधकारों का कथन है कि मुग्धराज नृप के पत्र को देख कर हमारे चरितनायकजी देवपत्तनपुर की ओर सिधारे । मार्ग में श्रीधाम, वामनपुरी (बणथली ) आदि सब स्थानों में चैत्यपरिपाटी पूर्षक महोत्सव मनाया गया । सोमेश्वर नरेश परिवार सहित संघ से सामने आ कर समरसिंह से मिले। दोनोंने परस्पर मधुरालाप द्वारा अपनी भेंट को चिरस्मरणीय किया ।
संघपति देसलशाहने हमारे चरितनायक को आगे किया । आपने देवालय और संघ सहित द्वारों पर तोरण और पताकायुक्त देवपत्तनपुर में प्रवेश किया । सोमेश्वरदेव के समक्ष एक प्रहरतक सब रहे । सम्प्रति, शालिवाहन, शिलादित्य और श्रमराज्य आदि राजा तथा इस कृतयुग में उत्पन्न हुए अनेक धनीमानी जैनों एवं चौलुक्य कुमारपाल राजा आदि भी जिस कार्य को न कर सके वह कार्य कलिकाल में देसल के भाग्य से हो गया । श्रीजिन शासन और ईश शासन के पारस्परिक स्वाभाविक वैमनस्य को दूर कर परस्पर प्रीतिमय मार्ग का उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित किया गया । इसी