SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कथा कोष ६७ का नाम श्रीदेवी तथा पुत्र का नाम कपिल था। काश्यप राजगुरु था। राजा की ओर से उसे पर्याप्त द्रव्य मिलता था। सुखी परिवार था। जनता में भी उनका काफी सम्मान था, लेकिन कपिल माता-पिता के लाड़-प्यार में अपठित रह गया। ___ काश्यप की मृत्यु के बाद कपिल के अनपढ़ होने से राजा ने एक दूसरे ब्राह्मण को राजपुरोहित का पद दे दिया। काश्यप के परिवार को राजा से मिलने वाला धन बन्द हो गया। परिणामस्वरूप कपिल और उसकी माता श्रीदेवी की दशा शोचनीय हो गई। वे आर्थिक तंगी में दिन गुजारने लगे। एक दिन कपिल अपने घर के बाहर खड़ा था। सामने से राजसी, ठाट में उस पुरोहित को जाते देखकर उसकी माता श्रीदेवी दुखित हो उठी। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। माता के रोने का कारण जब कपिल ने जानना चाहा, तब माता ने राजपुरोहित की सारी बात बताते हुए कहा—'तू पढ़ा नहीं, इसलिए तेरे पिता का सारा ऐश्वर्य दूसरे के हाथ में चला गया।' अपनी अज्ञता पर पश्चात्ताप करते हुए कपिल ने कहा—'माँ ! धैर्य धर, मैं अब पदूंगा। परन्तु यहाँ तो मुझे पढ़ाने वाला कोई है नहीं, क्योंकि जितने पंडित यहाँ हैं, वे सब मुझसे ईर्ष्या करते हैं। अत: किसी ऐसे पंडित का नाम बता जो मुझे पढ़ा दे।' तब माता ने 'सावत्थी' (श्रावस्ती) में रहने वाले 'इन्द्रदत्त' ब्राह्मण का नाम बताया, जो कपिल के पिता का मित्र था। ___ माता के संकेतानुसार कपिल वहाँ से चलकर 'सावत्थी' नगरी में 'इन्द्रदत्त' के पास पहुँचा तथा विद्या पढ़ाने की प्रार्थना की। इन्द्रदत्त ने भी अपने मित्र का पुत्र जानकर बड़े प्यार से उसे पढ़ाना प्रारम्भ किया। कपिल के लिए भोजन एवं आवास की व्यवस्था एक सेठ के यहाँ करवा दी। सेठ की एक दासी थी। वह दासी भी युवा थी और कपिल भी युवा था। दोनों का नित्य का संसर्ग प्रेम में परिवर्तित हो गया। दासी गर्भवती हो गई। अब आर्थिक समस्या सुरसा की भाँति मुँह बाये सामने आ खड़ी हुई। उस दासी ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा-'यहाँ के महाराज बहुत दानी हैं। प्रात:काल जो ब्राह्मण सबसे पहले वहाँ पहुँचता है, उसे महाराज दो मासा (लगभग दो ग्राम) सोना देते हैं। आप कल प्रात: सबसे पहले वहाँ जाकर सोना ले आईये। इससे हमारी कुछ समस्या सुलझ जायेगी।' कपिल राजदरबार में पहुँचा, पर संयोग ऐसा बना कि उससे पहले भी
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy