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________________ जैन कथा कोष ५३ में आठ वर्ष बड़े थे, फिर भी प्रभु के प्रति समर्पण भाव, जिज्ञासा, विनय जो रखा, उससे उनकी असाधारणता स्पष्ट झलक रही है । ' - आवश्यक चूर्णि ३५. इलाचीकुमार 'इलावर्धन' नगर में ' धनदत्त' नाम का एक सेठ रहता था । लक्ष्मी की उस पर खूब कृपा थी । उसका व्यापार-व्यवसाय काफी दूर-दूर तक विस्तृत था और वह स्वयं न्याय-नीति तथा सत्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध था । सेठ को एक अभाव था, और वह था पुत्र का । उसके कोई पुत्र न था । आखिर उसने अपनी पत्नी सहित अपनी कुलदेवी 'इलादेवी' की आराधना की । उसके पुत्र हो गया । कुलदेवी के नाम के आधार पर उसने पुत्र का नाम इलापुत्र अथवा इलाचीकुमार रखा । पुत्र को पाकर पति-पत्नी दोनों बहुत प्रसन्न हुए । इलाचीकुमार युवा हो गया। वह माता-पिता का आज्ञाकारी और विनीत था । बुद्धि में भी वह विचक्षण और कुशाग्र प्रतिभा वाला था । एक बार उसके नगर में एक नट- मंडली आई। इलाचीकुमार भी नट का तमाशा देखने गया । उस मंडली में मुखिया की एक षोड़शी पुत्री थी । वह रूप- लावण्य में तो सुन्दर थी ही, नट- कला में भी अत्यन्त प्रवीण थी । इलाचीकुमार उस पर मोहित हो गया। घर आकर उसने माता-पिता को स्पष्ट बता दिया कि वह नट- कन्या को ही जीवन संगिनी बनाएगा, अन्य किसी से विवाह नहीं करेगा । माता-पिता ने बहुत समझाया, अपनी जाति और समान कुल-शील वाली सुन्दर कन्याओं से विवाह करने का आग्रह किया, कुल- गौरव का वास्ता दिया, लेकिन इलाचीकुमार अपनी हठ पर अड़ा रहा। उसने माता-पिता की एक न मानी । यहाँ तक कह दिया— मेरी इच्छा पूरी न हुई तो प्राण दे दूँगा । इकलौते पुत्र के हठ के सामने पिता को झुकना पड़ा। वह नट- मंडली के मुखिया के पास पहुँचा । उससे कहा— नटराज ! आप अपनी पुत्री का विवाह १. अहंकारोपि बोधाय, रागोपि गुरु भक्तये, विषादः केवलायाभूत्, चित्रं श्री गौतम प्रभोः ! ॥१॥ तथा च — अंगूठे अमृतवशे, लब्धितणा भंडार, गौतम गुरु गुरु में बड़ो, मन वांछित दातार ॥२॥
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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