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जैन कथा कोष ५१
३४. इन्द्रभूति ( गौतम गणधर )
'गोबर' गाँव में गौतम गोत्र का एक 'वसुभूति' ब्राह्मण था । उसकी पत्नी का नाम 'पृथ्वी' था। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम था इन्द्रभूति जो अपने गोत्र 'गौतम' के नाम से विख्यात हुआ । इन्द्रभूति चार वेद, चौदह विद्याओं में निष्णात तथा अपने समाज में सम्पन्न, अग्रगण्य तथा एक प्रसिद्ध याज्ञिक थे । कर्मकांडी ब्राह्मण के रूप में इनकी देशव्यापी ख्याति थी ।
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एक बार अपापा नगरी में सोमिल ब्राह्मण द्वारा समायोजित यज्ञ में भाग लेने के लिए अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति वहाँ आये | और भी अनेक ब्राह्मण पंडित वहाँ एकत्रित हो गये, लेकिन यज्ञ के अधिष्ठाता अथवा यज्ञाचार्य इन्द्रभूति गौतम ही थे । सुयोग ऐसा बना कि ठीक उसी समय भगवान् महावीर के समवसरण का समायोजन देवों ने अपापा नगरी के बाह्य भाग में किया। समवसरण में भाग लेने के लिए आते हुए देवों के समूह को देखकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने समझा कि ये देव हमारे यज्ञ की आहुति लेने आ रहे हैं। पर जब देवगण यज्ञस्थल को लाँघकर ऊपर के ऊपर समवसरण भूमि में पहुँचने लगे, तब इन्द्रभूति अपनी असफलता पर बहुत निराश और हताश हुए। अहम् की अकड़ में अपने-आपको सर्वोत्कृष्ट विद्वान और धार्मिक समझने वाले इन्द्रभूति भगवान् महावीर को ऐन्द्रजालिक मान बैठे । बस, फिर क्या था, अपने सौ शिष्यों सहित इन्द्रजालिये का भण्डाफोड़ करने समवसरण की ओर चल पड़े। दूर से ही देवाधिदेव भगवान् महावीर को देखकर पैर कुछ अवश्य ठिठके । भगवान् महावीर ने कहा- ' गौतम ! आ गये !' साभिधान आह्वान सुनकर सोचा -- यह चापलूस है, मीठी-मीठी बातों से मुझे फुसलाना चाहता है। मैं तो विश्व-विश्रुत हूँ ही । तब नाम बता दिया तो इसमें इनकी क्या सर्वज्ञता है? यदि मेरे मन में रही हुई शंका का प्रकटीकरण कर देंगे तो मैं इन्हें अवश्य सर्वज्ञ स्वीकार कर लूँगा ।
यों वितर्क में इन्द्रभूति उलझ ही रहे थे, इतने में प्रभु ने कहा--' गौतम ! तुम्हारे मन में सन्देह है कि 'आत्मा है या नहीं' ? पर तुम्हारा यह सन्देह निर्मूल
१. कई इसका नाम बाहुल भी बताते हैं।