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________________ ३७४ जैन कथा कोष एकमात्र अधिशास्ता बना । समय-समय पर भगवान् ‘विमलनाथ' का धर्मोपदेश सुनता रहता। अन्त में अपने साठ लाख वर्ष की आयु का उपभोग कर महारंभी और महापरिग्रही बनकर दिवंगत हुआ। वासुदेव का वियोग 'बलभद्र' के लिए असह्य होता ही है। कुछ समय शोकग्रस्त रहकर अन्त में बलभद्र 'भद्र' प्रबुद्ध हुए। श्रमण 'मुनिचन्द्र' के पास श्रामणी दीक्षा स्वीकार कर सफल कर्मों की जंजीर को तोड़कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बने। –त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ४/३ २१७. हरिकेशी मुनि 'गंगा नदी के तट पर एक गांव था। उस गांव में चाण्डालों की एक बस्ती थी। वहाँ एक 'बल' नाम का चाण्डाल रहता था। उसके दो पत्नियाँ थीं'गोरी' और 'गांधारी'। गांधारी के एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम 'हरिकेशी' रखा गया। ___ 'हरिकेशी' रंग-रूप में बहुत ही बदसूरत था। वह रंग में जहाँ कुरूप था वहीं मुंह का भी कटुभाषी था। कुरूपता और कटुभाषिता इन दो दुर्गुणों से वह सभी जगह अपमानित होता था। एक बार सभी चाण्डालों ने एक जाति-भोज किया। उसमें सभी मिलजुलकर आमोद-प्रमोद करने लगे, पर तिरस्कृत-बहिष्कृत-सा 'हरिकेशी' एक तरफ बैठा था। संयोग की बात, उस समय वहाँ एक भयंकर सर्प निकला। लोग उसके पीछे दौड़े और उसे मार दिया जो कि सविष था। इतने में ही एक निर्विष 'दुमुंह' सर्प निकला। उस पर किसी ने प्रहार नहीं किया। वह अपने रास्ते सकुशल चला गया। ___ 'हरिकेशी' ने यह सब कुछ देखा। चिन्तन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जो मुंह से जहर उगलता था, वह मारा गया। इसके विपरीत जो शान्त व निर्विष था, उसे कोई भी कष्ट नहीं दिया गया, वह सकुशल रहा। मुझे भी कष्ट मेरी कटु प्रकृति के कारण हुआ है। इस प्रकार चिन्तन करके प्रशान्त जीवन जीने के लिए मनि बनने के लिए तैयार हो गया। संयमी बनकर तप:साधना करने लगा। विहार करते-करते हरिकेशी मुनि 'वाराणसी नगरी' के "तिन्दुक' वन में एक यक्ष के मन्दिर में
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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