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________________ जैन कथा कोष १६ गया' वाली उक्ति सिद्ध हुई। सारे उपचार बेकार सिद्ध हुए। कुमार अपनेआपको अनाथ-असह्य मानने लगा। उसी मर्मान्तक वेदना में चिन्तन करते-करते अनाथी ने संकल्प किया—'यदि मेरी वेदना मिट जाये तो मैं प्रात:काल साधु बन जाऊँगा।' संकल्प में शक्ति होती ही है। उसी बल पर वेदना रात्रि को ही शान्त हो गई। अनाथी को रोग-मुक्त देखकर सभी पुलकित हो उठे। मातापिता, पत्नी आदि को सारा वृत्तान्त बताकर और उनकी आज्ञा लेकर आपने मुनिव्रत स्वीकार किया। अनाथी मुनि विहार करते-करते राजगृही के मण्डीकुक्षी उद्यान में ध्यानस्थ बैठे थे। वहाँ महाराज श्रेणिक भ्राण हेतु आए, लेकिन मुनिश्री का रूपलावण्य देखकर आश्चर्यचकित हो उठे और मुनि का परिचय जानना चाहा। श्रेणिक उस समय तक बौद्ध थे। उन्होंने मुनिश्री से उनके दीक्षा लेने का कारण पूछा। मुनिश्री ने बताया—'मैं अनाथ हूँ।' इस उत्तर से राजा श्रेणिक ने अनुमान लगाया कि मुनिश्री का संरक्षण करने वाला कोई नहीं है और अपने आपको अनाथ समझकर साधु बने हैं। तब वह स्वयं उनका नाथ बनने को तैयार हुआ और अपने राज्य में चलने के लिए कहा । अनाथी मुनि ने कहा—'तू स्वयं ही जब अनाथ है, तब मेरा नाथ कैसे बनेगा?' यह सुनकर राजा चौंका। मुनिश्री. ने आगे कहा— धन-सम्पत्ति के बल पर तुम यदि नाथ बनना चाहते हो तो वैभव की कमी तो मेरे घर में भी नहीं थी।' रहस्य का उद्घाटन करते हुए मुनिश्री ने अपनी सारी आपबीती कह सुनाई, साथ ही यह भी बताया कि संयम लेने मात्र से कोई नाथ नहीं हो जाता है—वह भी वैसा ही अनाथ है जो व्रतों के साथ अठखेलियाँ करता है। श्रेणिक प्रबुद्ध हुआ और जैन-धर्म को स्वीकार कर अपने महल को लौट आया। __ अनाथी महानिर्ग्रन्थ कर्मक्षय कर मोक्ष में मथे। मुनिश्री 'अनाथी' के नाम से ही जैन-जगत् में अति विश्रुत हुए | -उत्तराध्ययन, २० १६. अबड संन्यासी अंबड नाम का एक संन्यासी था। वह बेले (२ दिन) का व्रत करता था। संन्यासी होते हुए भी श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता । तप के बल से
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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