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________________ जैन कथा कोष ३३३ तक चक्रवर्ती मुनि के पीछे-पीछे चलते रहे । पर मुनि सनतकुमार ने उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा । + शरीर में अनेक रोगों ने डेरा डाल दिया, फिर भी समता में लीन बने आत्मभाव में रमण करते रहते । फिर एक देव अनूठे वैद्य का रूप बनाकर आया और चिकित्सा कराने को कहा। उसकी प्रार्थना सुनकर समाधिस्थ बने 'सनतकुमार' ने कहा- ' 'वैद्यराज ! यदि मेरे कर्मों का रोग मिटा सकते हो तो शीघ्रता करो। इस शारीरिक कष्ट को मिटाने का जहाँ तक प्रश्न है, वह तो मैं भी मिटा सकता हूँ ।' यों कहकर अंगुली पर अपने मुँह का थूक लगाया। थूक लगाते ही कुष्ठरोग से गलित अंगुली भी कंचन जैसी चमकने लगी। शरीर स्वस्थ हो गया। रोग शान्त हो गया । देव आश्चर्यचकित होकर अपने मूलरूप में प्रकट हुआ । पुनः-पुनः वन्दना करता हुआ कहने लगा- ' धन्य है आपको, इतने लब्धि-संपन्न होते हुए भी इतने समताशील बने हुए हैं। समाधिपूर्वक वेदना को सहन कर रहे हैं। वास्तव में ही इन्द्र महाराज ने आपके धैर्य को सही परखा है। ' यों सात सौ वर्षों तक मुनि सनतकुमार ने वेदना को समता से सहा । देव अपने स्थान पर गये । सनतकुमार मुनि ने विविध तपःसाधना के द्वारा निर्वाण प्राप्त किया । - उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन १८ - त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र १९६. समुद्रपाल मुनि 'चम्पानगरी' में रहने वाला 'पालित सेठ' भगवान् महावीर का परम भक्त था । एक बार गाथापति पालित विविध भांति के क्रय-विक्रय के सामान से जहाज भरकर व्यापार के लिए 'पिहुंड' नगर पहुँचा | 'पिहुंड' नगर के एक वणिक ने अपनी पुत्री की शादी 'पालित' के साथ कर दी । 'पालित' अपनी पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर आ रहा था । रास्ते में एक पुत्र पैदा हुआ । समुद्र में पैदा होने से पुत्र का नाम 'समुद्रपाल' रखा। 'समुद्रपाल' अपनी युवावस्था में पहुँचकर बहत्तर कलाओं में पारंगत बना । एक रूपवती कन्या से 'समुद्रपाल' का विवाह हुआ । 'समुद्रपाल' महलों में सभी प्रकार का सुखोपभोग कर रहा था ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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