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३२४ जैन कथा कोष
का अधिकारी होगा । उस रानी के पुत्र भी हुआ। उसका नाम रखा गया 'चिलातीकुमार'।
'प्रसेनजित् ' ने आवेशवश वचन तो दे दिया, पर फिर सोचा — हुआ यह बुरा । 'श्रेणिक' का हक छीनकर मैंने अच्छा नहीं किया । नैमित्तिक के कहने से कुछ परीक्षाएं भी राजकुमारों की ली गयीं । उन सब परीक्षाओं में श्रेणिक सब विधि उत्तीर्ण हुआ, फिर भी 'प्रसेनजित्' ने श्रेणिक का शब्दों द्वारा अपमान किया। श्रेणिक ने यों अपमानित जीवन जीने से नगर -त्याग अच्छा समझा। नगर का परित्याग कर साहस बल से एकाकी चल पड़ा। मार्ग में बौद्ध मठ में विश्राम किया ।
बौद्धाचार्य ने उसके लक्षण देखकर शीघ्र ही उसे अंग-मगध का शासक बनने का संकेत दिया। श्रेणिक ने भी वैसा होने पर उनका सम्मान बढ़ाने को कहा। श्रेणिक आगे बढ़ा। मार्ग में बेनातट नगर के सेठ इन्द्रदत्त का साथ हो गया। कुछ दूर साथ-साथ चले। सेठ ने अपनी पुत्री नंदश्री का विवाह श्रेणिक के साथ कर दिया। नंदा के पुत्र का नाम 'अभयकुमार' रखा गया ।
'प्रसेनजित् ' ने 'चिलाती' का राजतिलक किया, पर वह अयोग्य निकला । राजा ने सारी अव्यवस्था देखकर मन ही मन अनुताप करते हुए अपना श्वास छोड़ते हुए सचिवों से कहा- - श्रेणिक का पता लगाकर उसका राजतिलक करो ।
'प्रसेनजित् ' की मृत्यु के बाद सचिवों के प्रयत्न से 'श्रेणिक' अंग मगध का शासक बन गया। अपने कर्तृत्व के बल पर समृद्धिशाली सम्राट् बना ।
'श्रेणिक' के नंदा, चेलणा, धारिणी, काली आदि अनेक रानियाँ और अभयकुमार, कूणिक, नंदीसेन, मेघकुमार, कालिकुमार आदि अनेक पुत्र थे ।
श्रेणिक प्रारम्भ में बौद्धमतावलम्बी था । अनाथी मुनि की संगति से वह जैन धर्मी बना। पटरानी चेलना महाराज चेटक की पुत्री थी । इसलिए वह जैन धर्मावलम्बिनी थी । महारानी की तरह राजा श्रेणिक भी प्रभु महावीर का परम भक्त बना। राज्यलिप्सा में फँसकर दुर्बुद्धि के योग से तथा पूर्वजन्म के वैरभाव से 'कूणिक' ने 'श्रेणिक' को पिंजरे में बन्द कर दिया । 'चेलणा' ने जब उसे समझाया तब 'कूणिक' हाथ में तीक्ष्ण कुठार लिये अपने पिता राजा श्रेणिक के बन्धन तोड़ने पिंजरे की ओर बढ़ा। श्रेणिक ने 'कूणिक' को अपनी ओर यों आते देखा तो सोचा— 'मुझे मारने के लिए आ रहा है । इस दुष्ट के हाथ