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जैन कथा कोष
खोज में थे जो श्रीकृष्ण के लिए सब विधि समुचित हो । जब 'रुक्मिणी' को उन्होंने देखा तो नारद मुनि पुलिकत हो उठे। उसका चित्र बनाकर लाए। श्रीकृष्ण को दिखाया । इसी बीच 'रुक्मिणी' के भाई 'रुक्मी' ने अपने पिता तथा बहन की इच्छा की अवहेलना करके 'रुक्मिणी' का सम्बन्ध चन्देरी नगरी के महाराज शिशुपाल के साथ कर दिया ।
पिता पुत्र की इस हठ को मूक बना देख रहा था। उधर नारद ऋषि रुक्मिणी के महलों में जाकर उसे कृष्ण के प्रति आकर्षित कर आये तथा यह भी कह दिया कि यदि तेरी तरफ से कुछ संकेत श्रीकृष्ण को मिल गया तो वे अवश्य समय पर पहुँचकर तेरी भावना पूरी करेंगे ।
'रुक्मी' के आमन्त्रण पर 'शिशुपाल' बारात लेकर वहाँ आ पहुँचा। चारों ओर नगर में सेना का घेरा डाल दिया, ताकि कोई अन्ग बीच में न आने पाए।
'रुक्मिणी' ने चिन्तित होकर 'कुशल' पुरोहित के द्वारा 'श्रीकृष्ण' को पत्र भेजा। पत्र मिलते ही ‘बलभद्र' को साथ लेकर श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे और नगर के बाहर 'प्रमद बाग' में आकर ठहरे। 'रुक्मिणी' अपनी बुआ के साथ कामदेव की पूजा के लिए उपवन में पहुँची। श्रीकृष्ण उसे वहाँ मिल ही गए। जब उसे लेकर श्रीकृष्ण जाने लगे तब नारद मुनि के सचेत करने से 'श्रीकृष्ण' ने शंखनाद किया। उस नाद से रुक्मिणी का हरण श्रीकृष्ण के द्वारा जानकर रुक्मी और शिशुपाल क्रुद्ध हो युद्ध करने आये । किन्तु युद्ध में दोनों को ही मुँह की खानी पड़ी। शिशुपाल अपनी शान गंवाकर भाग गया तथा रुक्मी को बांध लिया गया । बंधा हुआ देखकर रुक्मिणी ने दया दिखाकर उसके बंधन खुलवा दिए। भीम राजा अपनी पसन्द का जामाता पाकर परम प्रसन्न हुआ । 'रुक्मिणी' के साथ श्रीकृष्ण का सानन्द पाणिग्रहण कर दिया गया। नारद मुनि को 'सत्यभामा' के ऊपर सौत लाकर बहुत अधिक प्रसन्नता हुई । रुक्मिणी श्रीहरि की पटरानी बनी ।
रुक्मिणी के सामर्थ्यवान् 'प्रद्युम्नकुमार' नाम का पुत्र हुआ । द्वारिका-दहन का प्रसंग सुनकर 'श्रीकृष्ण' की अनेक रानियां संसार से विरक्त हो उठीं। उसी प्रसंग पर श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर 'रुक्मिणी' ने भी प्रभु के पास संयम, लिया। महासती 'राजीमती' के नेतृत्व में रहकर उत्कट तपोबल के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके निर्वाण प्राप्त किया ।
-अन्तकृद्दशा
- आवश्यक कथा