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जैन कथा कोष ३०१
'रावण' के कुल में कुल क्रम से राक्षसी विद्या का प्रचलन था। अतः ये राक्षस कहलाते थे। 'रावण' के प्रपितामह को भीमेन्द्रदेव ने राक्षसी विद्या और नवमाणिक का हार दिया था । यह नवमाणिक हार राजा 'रावण' ने अपने शैशवकाल में ही एक दिन सहसा गले में पहन लिया। नवमाणिक में उसके नौ मुख दिखने लगे। एक मुंह स्वयं का था ही। इससे उसका नाम दशमुख पड़ गया। यह दशकंधर के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ । इन्द्रजीत, मेघवाहन आदि रावण के कई दुर्दान्त पुत्र थे । मंदोदरी आदि कई रानियां थीं ।
राजा रावण अद्भुत बलवान, समृद्धिवान तथा प्रतिभावान शासक था । तीन खण्ड पर अपना अधिकार जमाकर प्रतिवासुदेव कहलाया । कई सद्गुणों में एक गुण राजा रावण में यह भी था कि उसने नियम ले रखा था - - जो स्त्री उसे नहीं चाहेगी, उसे वह बलात् स्वीकार नहीं करेगा ।
इतना सब कुछ होने पर भी अपनी बहन 'सूर्पणखा' के बहकाने पर महासती 'सीता' को उठाकर ले गया। राम-लक्ष्मण ने सेना सज्जित करके रावण पर चढ़ाई की। भयंकर युद्ध हुआ। रावण ने अपना चक्र लक्ष्मण को मारने के लिए फेंका, लेकिन उससे लक्ष्मण का कुछ नहीं बिगड़ा । लक्ष्मण ने उसी चक्र को रावण पर फेंका। रावण अपने ही चक्र से धराशायी हो गया । होता भी यही है। सभी प्रतिवासुदेव अपने ही चक्र से मरते हैं। रावण नरक में गया। आगे कई जन्मों के बाद तीर्थंकर बनकर निर्वाण प्राप्त करेगा । "
- त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ७
१७१. रुक्मिणी
'रुक्मिणी' 'विदर्भ' देश के 'कुडिनपुर' नगर के महाराज 'भीम' की पुत्री थी । उसका रूप-सौन्दर्य अनन्य था । 'रुक्मिणी' की माँ का नाम 'शिखावती' तथा भाई का नाम ' रुक्मी' था
'सत्यभामा' का मान भंग करने के लिए नारद मुनि एक ऐसी कन्या की
१. २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ वासुदेव, ६ बलदेव और ६ प्रतिवासुदेव — ६३ ला (शलाघ्य) पुरुष कहलाते हैं जिनमें तीर्थकरों की गति तो मोक्ष ही होती है । चक्रवर्ती की गति मोक्ष, स्वर्ग और नरक तीनों ही हो सकती है। बलदेव स्वर्ग अथवा मोक्ष के अधिकारी होते हैं। वासुदेव और प्रतिवासुदेव निदान करके ही उस पद पर आते है। इसलिए ये अधोभूमि के ही अधिकारी होते हैं । इतना अन्तर जरूर है कि अधोभूमि में जाने वाले वासुदेव और चक्रवर्ती कुछ ही भवों के बाद निर्वाण को प्राप्त होते हैं।