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________________ २६४ जैन कथा कोष था। वह आगे बढ़ता और किसान का डंडा देखकर पीछे हट जाता | गधे की इस चेष्टा को देखकर किसान गुनगुनाने लगा अवधससि धससि धुत्ता, ममं चेव निरक्खसि। लक्खिओ ते अभिप्पाओ, जवं पेच्छसि गद्दहा।। अर्थात्—हे गर्दभ ! तू आगे बढ़ता है, पीछे हट जाता है; मुझे भी देख रहा है। तेरा विचार यव (जौ) खाने का है। मैं समझ गया। यह गाथा यवराजर्षि को अच्छी लगी और उन्होंने यह गाथा रट ली। कुछ और आगे बढ़े तो गाँव के बाहर मैदान में बच्चे 'गिल्ली-डंडा' खेल रहे थे। गिल्ली दूर जाकर एक गड्ढे में गिर पड़ी। बालक इधर-उधर झाँकने लगे। एक बालक को वह गिल्ली दिखाई दे गई। वह एक गाथा बोला इओ गया, तओ गया, जोइज्जंती न दीसई। वयं एवं वियाणामो, अगडे पडिया अणुल्लिया।। अर्थात्—इधर गई, उधर गई, तुझे देखने पर भी नहीं दिखाई देती; लेकिन मैं जानता हूँ कि अणुल्लिया (गिल्ली) गड्ढे में पड़ी हुई है। यह गाथा भी यवराजर्षि को अच्छी लगी और याद कर ली तथा आगे बढ़ गये। अब यवराजर्षि यवपुर पहुँच गये। संध्या हो चुकी थी अतः नगर के बाहर ही एक कुंभकार के घर पर शुद्ध स्थान प्राप्त कर रात्रि विश्राम के लिए ठहर गये। संध्याकालीन प्रतिक्रमण करके मुनि स्वाध्याय कर रहे थे। सामने ही ओटले (अन्दर के चबूतरे) पर कुम्भकार बैठा था। उसने देखा—एक चूहा बड़े मजे से इधर-उधर दौड़ रहा है। कुंभकार जरा-सा हिला तो चूहा डरकर बिल में घुस गया। उस चूहे की भयाकुल दशा देखकर कुंभकार गुनगुनाया सकुमालय भद्दलया, रत्ति हिंडणसीलया। मम समासाओ नत्थि भयं, दीहपिट्ठाओ ते भयं।। अर्थात्-हे सुकुमार भद्र मूषक (चूहे) ! मुझे मालूम है रात के अंधेरे में घूमते रहने का तेरा स्वभाव है, तो भाई आनन्द से घूमो-फिरो। तुम्हें मुझसे कोई भय नहीं है। भय तो तुम्हें दीर्घपृष्ठ (सर्प) से है। यवराजर्षि को यह गाथा भी बड़ी अच्छी लगी। इसलिए उन्होंने याद कर ली। मन में सोचा—इन गाथाओं के सहारे प्रवचन चल सकेगा। इसलिए वे
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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