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जैन कथा कोष
जब राजा ने उसे देखा तब सोचा, इस गुप्त चिह्न का इसे पता कैसे लगा ? हो न हो यह दुराचारी है। इसे फांसी पर चढ़ा देना चाहिए। चित्रकार ने अपनी सफाई पेश करते हुए यक्ष के द्वारा वर प्राप्ति की बात कही ।
राजा ने परीक्षा लेने के लिए एक कुब्जा दासी का मुँह दिखाकर उसका चित्र बनाने के लिए कहा । चित्रकार ने सही-सही चित्र बना दिया । राजा को प्रसन्न होना चाहिए था, पर कुपित होकर राजा ने उसका अंगूठा कटवा दिया।
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अकारण दण्डित होने के कारण उसको बहुत दुःख हुआ । मन में संकल्प किया कि राजा से बदला लेकर ही रहूंगा। उसने बाएं हाथ से चित्र बनाने का अभ्यास कर लिया । प्रतिशोध की भावना से 'मृगावती' का चित्र बनाकर उज्जयिनी नरेश ‘चण्डप्रद्योत' को ले जाकर दिखाया । 'चण्डप्रद्योत' तो कामुक था ही । चित्र देखते ही कामान्ध हो गया । मृगावती को पाने के लिए कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। महाराज 'शतानीक' इस आकस्मिक हमले से भयभीत हो गये। अब क्या होगा? इस भय से ही अतिसार का रोग हो गया, साथ में प्राणान्त भी ।
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चण्डप्रद्योत ने नगर घेर ही रखा था । उस समय 'मृगावती' ने साहस से काम लिया । समयज्ञता का परिचय देते हुए महाराज चण्डप्रद्योत से कहलाया— 'अब मेरा तो आपके सिवा कौन है? मैं यह देखना चाहती हूँ कि आपका मेरे प्रति कितना लगाव है? आप मुझे चाहते हैं, मैं यह तब समझँगी जब उज्जयिनी की चारदीवारी को तुड़वाकर उन ईंटों से कौशाम्बी की चारदीवारी जो तोड़ दी गई है उसे तैयार करवाओगे । '
राजा ने सती की चतुराई को प्रेम - निमंत्रण समझा । परकोटा तैयार होने लगा । 'मृगावती' तप:साधना में लग गई ।
संयोगवश ज्योंही चारदीवारी तैयार हुई और प्रद्योत 'मृगावती' को पाने को उत्सुक हुआ। उसी समय अशरणशरण भगवान् 'महावीर' वहाँ पधार गए । 'प्रद्योत ' भी प्रभु की सेवा में उपस्थित हुआ । 'मृगावती' अपने पुत्र 'उदायन' को लेकर समवसरण में पहुँची । 'प्रद्योत' के विकार भाव समवसरण में पहुँचते ही शान्त हो गए। यह समवसरण की भूमि का ही प्रभाव था । वहाँ प्रभु के निकट पहुँचते ही सब परस्पर वैर भाव भूल जाते हैं । 'मृगावती' ने प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहा- 'प्रभुवर ! मैं आपके पास संयम लेना चाहती हूँ पर