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जैन कथा कोष २७६ में इसे पिरोया गया है, यंत्रों में इसे पीला गया। वहाँ इसकी चीख, दुःख की कथा सुनने वाला कौन था? वैसे ही तिर्यंच योनि में तथा मनुष्य योनि में भी परवशता से इसने क्या कम दुःख सहे हैं? मैं किस-किस गति के कौन-कौन से दुःखों का वर्णन करूं ! मैं तो इतना कहना चाहूंगा यदि आप मुझे सुखी देखना चाहते हैं, दुःखों से छुटकारा दिलाना चाहते हैं, तो मुझे कहिये – 'जा पुत्र ! आनन्दपूर्वक संयमी बन, संयम पथ पर सकुशलतापूर्वक बढ़। लक्ष्य को
प्राप्त कर । '
'मृगापुत्र' की वैराग्यमय वाणी सुनकर माता-पिता गद्गद् हो उठे। पुत्र का गहरा वैराग्य जानकर संयम लेने की सहर्ष अनुमति दे दी ।
सारे वैभव को ठुकराकर 'मृगापुत्र' संयमी बना । उत्कट तप और निरतिचार संयम साधना करते-करते क्षपकश्रेणी चढ़कर 'मृगापुत्र' ने केवलज्ञान प्राप्त किया तथा निर्वाण भी प्राप्त किया ।
- उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन १६
१५६. मृगालोढा
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक नगर था, जिसके सौ दरवाजे होने से उसका नाम 'शतद्वार' था । वहाँ के महाराज का नाम 'धनपति' था । उस 'शतद्वार' नगर के अग्निकोण में 'विजयवर्धमान' नाम का ग्राम था । उस गाँव में एक 'इकाई राठोर' नाम का ठाकुर था जो राठोर जाति का था। वह पाँच सौ गांवों का स्वामी था । 'इकाई' बहुत ही क्रूर, अधर्मी और चण्ड प्रकृति का था । वह पाप-पुण्य को कुछ भी नहीं मानता था । केवल जनता को जैसे-तैसे निचोड़कर धन इकट्ठा करना चाहता था। इतना ही नहीं, धन के लिए चोरी करवाना, राहगीरों को लुटवाना उसका प्रतिदिन का कार्य था । जनता के दुःख-दर्द की उसे तनिक भी चिन्ता नहीं थी । उसे चिन्ता रहती थी अपनी तिजोरियाँ भरने की । चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। पर सुनने वाला कौन था? वह तो स्वच्छन्द बना अत्याचार करने को तैयार रहता । परन्तु पाप किसी का बाप नहीं होता । संयोग की बात, उसके शरीर में सोलह प्रकार के महाभयंकर रोग एक साथ ही पैदा हो गये। अनेक रोगों से एक साथ घिर जाने से 'इकाई' बहुत पीड़ित व्यथित हुआ तथा अपने-आपको दीन-हीन मानने लगा। चिकित्सकों को विविध प्रकार के प्रलोभन देकर चिकित्सा करने के लिए कहा। उन्होंने भी जी-जान लगाकर