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________________ २७८ जैन कथा कोष शरीर भी साथ जाने वाला नहीं है। साथ जाने वाला है—मात्र पुण्य और पाप । जब किसी घर में आग लग जाती है, तब उस घर का स्वामी घर में जो कुछ सार वस्तु होती है, वह निकालने की शीघ्रता करता है, त्यों ही जन्म-जरा-मृत्यु में झुलसते संसार से मैं मेरी आत्मा को निकालना चाहता हूँ। आप मुझे अनुमति दीजिए।' मृगापुत्र की बात सुनकर, अकस्मात् लगे आघात को मन-ही-मन समेटे माता-पिता बोले—'वत्स ! तू बालक है, तेरा मन सुकोमल है। तुझे अभी धूपछांह का भी पता नहीं है। तेरे-जैसे सुकोमल के लिए संयम का पालन बहुत दुष्कर है। तलवार की पैनी घाह पर चलने के समान है। लोहे के चने चबाने हैं। अगाध समुद्र को भुजाओं से तैरने के समान कष्टकर है। संयम-मार्ग में आने वाले उपसर्ग-परीषहों का सहना भी आसान नहीं है। प्रासुक पानी पीना, जमीन पर सोना, नंगे पांव धूप में चलना, सर्दी में कम वस्त्रों में काम निकालना, केश लुंचन करना, जीवों की दया का पालन करना, सत्य बोलना, स्वामी की आज्ञा बिना कुछ भी नहीं लेना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, सर्वथा मोह, माया, ममता का परित्याग करना, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, दंश-मशक आदि परीषहों को सहना तेरे लिए बिलकुल ही असंभव है। इसलिए साधु बनने की भावना को मन से निकालकर, संसार के भोगों का उपभोग कर । यदि साधु बनने की तेरी भावना प्रबल ही है तो वृद्धावस्था में साधु बन जाना।' माता-पिता की बात सुनकर 'मगापुत्र' बोला—'मिली हुई सामग्री को स्वेच्छा से ठुकराना ही सच्चा त्याग है। आप कहते हैं—इस विपुल ऋद्धि का परिभोग करके संयम ग्रहण करना। आप देखिए ऋद्धि से तृप्ति किसे हुई है? किसी को भी नहीं। मनुष्य की सम्पत्ति से अनन्त गुणी ऋद्धि देवगति में इस जीव को मिली है। अनेक बार मिली है। फिर भी इस जीव को तृप्ति नहीं हुई तो इन भोगों से क्या भूख मिटने की है? आपने संयम की जो दुष्करता बताई, उपसर्गों का भय दिखाया, यह सब उसके लिए ही है जो कायर और कमजोर है। आत्मबली के लिए ये सब छिटपुट हमले कुछ भी नहीं हैं। आप संयम के कष्टों की कथा मुझे सुना रहे हैं, पर इस जीव ने नरक में कितने-कितने भयंकर कष्ट सहे हैं। नरक की कुंभी में यह अनेक बार गिरा है, नरक की प्रचंड अग्नि में अनेक बार जला है, शाल्मली वृक्ष के उन तीखे पत्तों की तलवार जैसी धार से इसके अंग-प्रत्यंग अनेक बार काटे गये हैं, भालों
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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