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________________ जैन कथा कोष २५७ 'मघवा' का पाणिग्रहण हुआ। जब आयुधशाला में चक्र पैदा हो गया तब 'मघवा' ने छः खण्डों पर अपना अधिकार जमाया। यह तीसरा चक्रवर्ती कहलाया। अन्त में संयम का पालन करके मोक्ष में विराजमान हुआ। पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के बाद ये चक्रवर्ती हुए। -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ४, सर्ग ६ ___१४६. मधुबिन्द हस्तिनापुर में धनपाल नाम का सार्थवाह रहता था। वह विदेशों में जाकर व्यापार किया करता था। एक बार जब वह व्यापार के लिए सार्थ लेकर जाने लगा तो उसने नगरी के अन्य व्यापारियों को भी साथ चलने को कहा। बहुत से लोग साथ चलने को तैयार हो गये। उनमें एक जयचन्द नाम का व्यक्ति भी था। सार्थ चल दिया। एक सघन वन में पेड़ों की छाया में सार्थ ठहरा और सभी विश्राम करने लगे। . सुखपूर्ण निद्रा लेने के लिए जयचन्द सार्थ से दूर जाकर एक पेड़ की घनी छाया में सो गया। उसे गहरी नींद आ गई। सार्थवाह धनपाल को जयचन्द का ध्यान न आया और वह सार्थ लेकर आगे बढ़ गया। इधर जयचन्द की नींद सूर्यास्त के समय टूटी। देखा तो सार्थ जा चुका था। वह बहुत घबराया। रात किसी तरह काटी और सुबह एक ओर को चल दिया। एक हाथी ने उसे देख लिया। हाथी उसके पीछे भागा। जयचन्द भी प्राण बचाने को मुट्ठी बांधकर भागा। भागते-भागते उसे एक विशाल वृक्ष की मोटी शाखा दिखाई दे गई। वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उछला और शाखा से लटक गया। पीछे भागते हुए हाथी ने उसे सूंड में लपेटने की चेष्टा की, लेकिन जब सूंड में उसे न लपक सका तो वह वृक्ष के तने को ही सूंड से गिराने का प्रयत्न करने लगा। वृक्ष पर मधुमक्खियों का छत्ता था। हाथी के हिलाए जाने पर मधुमक्खियाँ उड़ी और जयचन्द को काटने लगी| जयचन्द ने नीचे देखा तो एक अन्धकूप था जिसमें एक भयंकर नाग फन फैलाए फुफकार रहा था। उसकी दृष्टि ऊपर गई तो देखा कि जिस डाल पर वह लटका हुआ है, उसे सफेद और काले रंग के दो चूहे कुतर रहे हैं। चारों ओर से विपत्तियों में घिरा जयचन्द बेहाल हो गया। उसे मौत नजर आने लगी। तभी शहद के छत्ते से एक बूं यो
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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