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________________ २५२ जैन कथा कोष महाराज 'भरत' जब साठ हजार वर्ष तक छः खण्ड की साधना करके वापस विनीता नगरी में आये तब 'सुन्दरी' को देखकर दंग रह गये। जब उसके तीव्रतम वैराग्य का पता लगा तब मन-ही-मन अनुताप करते हुए 'सुन्दरी' को प्रभु के पास लेकर गये। अपनी ओर से दी हुई अन्तराय पर घोरातिघोर पश्चात्ताप करते हुए भरत ने दीक्षा की सहर्ष अनुमति दी । प्रभु ने 'सुन्दरी' को प्रव्रजित कर दिया । 'ब्राह्मी' और 'सुन्दरी' दोनों ही भगिनियों ने तीव्रतम तप:साधना के द्वारा संयम का सकुशल पालन किया । सम्पूर्ण मोहावरण को हटाकर केवलज्ञान का उपार्जन किया। अनेक जीवों का. उद्धार करके अष्टापद पर अनशन करके मोक्ष प्राप्त किया । - त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १ - आवश्यक निर्युक्ति गाथा, १६६ / ३४६ १४५. भरत - बाहुबली 'भरत' और 'बाहुबली' आदिनाथ भगवान् के सौ पुत्रों में बड़े पुत्र थे। इन दोनों में भरत बड़े थे और बाहुबली छोटे । दोनों ही महापराक्रमी बलवान् और आनबान के अनूठे योद्धा थे । 'भरत' की माता का नाम 'सुमंगला' तथा 'बाहुबली' की माता का नाम 'सुनंदा' था। वैसे भरत के अट्ठानबे छोटे भाई और भी थे। भगवान् 'आदिनाथ' ने दीक्षा लेते समय अयोध्या का राज्य भरत को सौंपा, बाहुबली को 'बेहली' देश का राज्य दिया तथा अन्य पुत्रों को अन्य देशों का । 'भरत' ने आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा होने के बाद भरतक्षेत्र के छः खण्डों में अपना आधिपत्य जमाया। इस दिग्विजय में उसे ६०,००० वर्ष लगे। जब दिग्विजय सम्पन्न करके विनीता नगरी में लौटे तो चारों ओर विजय का अपूर्व उल्लास छा गया। लेकिन तभी पता लगा कि चक्ररत्न आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है। एक भी राजा जब तक चक्रवर्ती की आज्ञा स्वीकार करने से अस्वीकार होता है, तब तक चक्र आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं होता, ऐसा नियम है। विचार करने पर 'भरत' का ध्यान अपने निन्यानबे भाईयों पर गया । जब भरत द्वारा अट्ठानबे भाईयों से आदेश मानने के लिए कहा गया, तब वे अनमने - से बन गये। 'पराधीन सपनेहु सुख नाही' मानकर भगवान् आदिनाथ के पास
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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