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________________ २५० जैन कथा कोष पुत्र के रूप में घोषित कर दिया। अब बंकचूल अपनी बहन बंकचूला को भी वहाँ ले आया और राजा के पुत्र के रूप में सुख से रहने लगा। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए जब आचार्य चन्द्रयश उज्जयिनी पधारे तो बंकचूल ने उनसे श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर लिये। शालिग्राम-निवासी श्रावक जिनदास से उसकी गाढ़ मैत्री हो गई। अब वह श्रावकधर्म का पालन करने लगा। एक बार कामरूप देश के दुर्धर राजा ने उज्जयिनी पर आक्रमण कर दिया। उसका सामना करने के लिए राजा के आदेश से बंकचूल सेना लेकर मैदान में जा पहुँचा। युद्ध-कला में निपुण बंकचूल ने दुर्धर राजा को पराजित कर दिया। विजय का डंका बजाता हुआ बंकचूल लौट रहा था, तभी शत्रु ने एक विषबुझा तीर छोड़ा, जो बंकचूल की पीठ में लगा। उसे तीव्र वेदना होने लगी। राजा ने बंकचूल के उस घाव को ठीक कराने के अनेक उपाय कराये, लेकिन सब विफल रहे। अन्त में वैद्यों ने बताया- यदि कौवे के माँस में दवाई दी जाए तो राजुकमार शर्तिया ठीक हो सकते हैं। कौवे के माँस का नाम सुनते ही बंकचूल ने स्पष्ट इंकार कर दियामैं कौए के माँस का त्याग कर चुका हूँ। प्राण रहे या जाएं, मैं कौवे का माँस किसी भी दशा में न लूँगा। राजा ने उसे बहुत मनाया-समझाया, लेकिन जब वह न माना तो उसे समझाने के लिए जिनदास श्रावक को बुलाने के लिए अपने सेवक भेजे । श्रावक जिनदास जब आ रहा था तो मार्ग में उसे दो स्त्रियाँ रोती हुई मिलीं। रोने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया—हम सौधर्म कल्प की देवियाँ हैं। हमारे पति स्वर्ग से च्यूत हो चुके हैं। हम राजकुमार बंकचूल से प्रार्थना करने आयी थीं; लेकिन आप उन्हें नियम-भंग करने की प्रेरणा देने जा रहे हैं। इससे उनकी अधोगति हो जाएगी। श्रावक जिनदास ने अपना कर्त्तव्य निश्चित कर लिया। उसने जाकर राजा से कहा-महाराज ! बंकचूल का आयुष्य थोड़ा ही शेष है, अतः नियम भंग करने पर भी ये बच नहीं सकते। इसलिए इन्हें नियम का पालन करने ही दीजिए। अन्तिम समय में धर्माराधना ही उचित है। राजा की सहमति से जिनदास ने बंकचूल को संलेखना-संथारा कराया।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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