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जैन कथा कोष २४५ तब ‘सुमुख' से कहा—'अरे सुमुख ! देखो तो सही, यह ढोंगी मुनि यहाँ ध्यान करके खड़ा है। अपने पुत्र के प्रति इसके दिल में तनिक भी दया नहीं है। उधर नगर पर दुश्मन राजा ने आक्रमण कर दिया, वहाँ उसका रखवाला कौन है? राज्य छीन लिया जाएगा। इसकी पत्नी का भी बुरा हाल होगा।'
दुर्मुख के ये शब्द कान में पड़ते ही 'प्रसन्नचन्द्र' मुनि का ध्यान भंग हो गया। राज्य, पुत्र और पत्नी की चिन्ता में आर्तध्यान में उलझ गये। मन-हीमन शत्रुओं से युद्ध करने लगे।
महाराज 'श्रेणिक' ने उधर प्रभु के पास पहुँचकर उन मुनि की गाने के सम्बन्ध में पूछा, तब प्रभु ने कहा—'यदि इन्हीं परिणामों में उनका मरण हो तो वे प्रथम नरक मे जायेंगे।''श्रेणिक' आश्चर्य में था। उधर मुनि की भावना क्रूर हो रही थी, इधर श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर में दूसरी, तीसरी बताते-बताते सातवीं नरक प्रभु ने बता दी।
उधर मुनि मन-ही-मन युद्ध में ऐसे रत हो गये कि शत्रु को मारने हेतु अपने सिर से उतारकर मुकुट फेंकना चाहा। जब सिर पर हाथ पड़ा तब भान हुआ— छि:-छिः मैं तो मुनि हूँ। किसका राज्य? किसका पुत्र? किसका कौन? सारे सम्बन्ध झूठे हैं। यों विचार करते ही मनोभाव बदले । सातवीं नरक से चढ़तेचढ़ते सर्वार्थसिद्ध तक उनके परिणाम पहुँच गये। मुनि भावों से निरन्तर ऊँचे
और ऊँचे चढ़ रहे हैं। ____ इतने में सहसा राजा श्रेणिक' को देव-दुन्दुभियाँ सुनाई दीं। पूछने पर प्रभु ने कहा—'प्रसन्नचन्द्र' मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। श्रेणिक' का रोमरोम यह संवाद सुनकर पुलकित हो उठा। प्रभु को वंदन करके अपने महलों की ओर बढ़े। जाते-जाते मन-ही-मन सोच रहे हैं—'प्रसन्नचन्द्र' मुनि अपने स्थान से न हिले, न डुले । प्रारम्भ से अन्त तक वैसे के वैसे खड़े नजर आ रहे हैं। पर भावों से कहाँ-से-कहाँ पहुँच गये। मेरा वह दुर्मुख दूत भी अपने खराब मुँह से बात कहकर मुनि की भावना को बिगाड़ने में कैसे निमित्त बन गया।
-आवश्यक कथा
१४१. बहुपत्रिका देवी 'वाराणसी' नगरी में 'भद्र' सार्थवाह की पत्नी का नाम 'सुभद्रा' था। 'सुभद्रा' रूपवती, सौभाग्यवती तथा ऋद्धिसम्पन्न थी, पर कोई सन्तान न होने से दुःखित