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________________ २४२ जैन कथा कोष कि विष उतारने वाली मुद्रिका राजा के पास है, तब पुनः आयी और कंठ मसोसकर उसे मार दिया। राजा समभाव में लीन समाधिपूर्वक मरकर पहले देवलोक के सूर्याभविमान में सूर्याभदेव के रूप में पैदा हुआ। यहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जाकर सिद्धबुद्ध-मुक्त होगा। -रायप्रसेणी सूत्र १३७. प्रभव स्वामी भरतक्षेत्र के विंध्याचल पर्वत के पास एक नगर था जिसका नाम 'जयपुर' था। वहाँ के महाराज 'विंध्य' के दो पुत्र थे—'प्रभव' और 'प्रभु'। राजघरानों में बड़ा पुत्र ही राज्याधिकारी होता है। परन्तु राजा ने 'प्रभव' को शासन-भार न सौंपकर छोटे पुत्र 'प्रभु' को राज्य दिया। 'प्रभव' ने इसे अपना भयंकर अपमान समझा। पिता के प्रति आक्रोश तो था ही, परन्तु 'प्रभु' पर भी रोष कम न था। सोचा, इसे क्या जरूरत थी मेरा अधिकार लेने की? इसे स्पष्ट अस्वीकार कर देना चाहिए था। यही सोचकर 'प्रभव' ने 'प्रभु' को सभी प्रकार से दुःखित करना चाहा। ____ 'विंध्य' पर्वत के पास ही एक गाँव 'चोरपल्ली' बसाकर वहाँ रहने लगा। अपने साथ अपने पाँच सौ अन्य साथियों को भी मिला लिया। आसपास में लूट-पाट करनी शुरू कर दी। उसने अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी दो विद्याएँ भी सिद्ध कर ली और दुर्दान्त दस्यु बन गया। अब वह मगध की राजधानी चम्पा तक धावा मारने लगा। उसकी दुस्साहसिकता इतनी बढ़ चुकी थी कि राजकर्मचारी उसका कुछ भी न बिगाड़ पाते। जम्बूस्वामी की ससुराल से दहेज की चर्चा सुनकर प्रभव अपने साथियों सहित वहाँ उस अपार धनराशि को लेने के लिए पहुँचा । गया तो अधिक लाभ की आशा से था, परन्तु पल्ले पड़ी निराशा । वहाँ साथियों के हाथ-पाँव चिपक गये। तब ऊपर महल में जहाँ 'जम्बूस्वामी' अपनी पत्नियों के साथ धर्मचर्चा कर रहे थे, वहाँ पहुँचा। 'प्रभव' ने बाहर से सारी चर्चा सुनी। मन में सोचा'कहाँ तो मैंने राजपुत्र होकर चोरी का धन्धा शुरू कर रखा है, कहाँ ये जम्बूस्वामी, जो इस चढ़ते यौवन में इन नवयुवतियों तथा अतुल वैभव को ठुकराकर जा रहे हैं। धन्य है इन्हें!' यों विचारकर जम्बूस्वामी के चरणों में जा
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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