________________
८ जैन कथा कोष पराङ्मुखता से अंजना का व्यथित होना स्वाभाविक ही था, पर वह पवनंजय के रूठने का कारण समझ नहीं पा रही थी। वह सोचती-मेरी ओर से कोई त्रुटि हो गई हो, ऐसा मुझे लगता तो नहीं है। वह बहुत सोचती, किन्तु पति की नाराजगी का कोई कारण उसकी समझ में न आता।
एक बार अंजना के पिता के यहाँ से जेवर, मिष्ठान्न और राजसी पोशाक पवनंजय के लिए आये। अंजना ने वह सामग्री पवनंजय के पास दासी के हाथ भेजी। पवनंजय देखकर आग-बबूला हो उठा। कुछ वस्तुएं नष्ट कर दी और कुछ वस्तुएं चाण्डालों को देकर अंजना के प्रति आक्रोश प्रदर्शित किया। दासी ने जब आकर सारी बात अंजना से कही, तब उसके दुःख का पार नहीं रहा। अपने भाग्य को दोष देती हुई और पति के प्रति शुभकामना व्यक्त करती हुई वह समय बिताने लगी। यों बारह वर्ष पूरे हो गये। ___एक बार लंकेश्वर 'रावण' ने राजा 'प्रह्लाद' से कहलाया कि इन दिनों 'वरुण' काफी उद्दण्ड हो गया है, उस पर काबू पाना है, अतः आप सेना लेकर वहाँ जाइये । 'प्रह्लाद' जब जाने लगे तब अपने पिता को रोककर 'पवनंजय' स्वयं युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए। माता-पिता को प्रणाम कर जाने लगे, परन्तु विदा लेने अंजना के महलों में फिर भी नहीं आये। व्यथित-हृदय अंजना पति को समरांगण में जाते समय शकुन देने के लिए हाथ में दही से भरा स्वर्ण कटोरा लिये द्वार के पास एक ओर खड़ी हो गई। पवनंजय ने जब उसे देखा तब उससे न रहा गया। सभी तरह से अपमानित करता हुआ बुदबुदाया—'अभी कुलटा ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा है। ऐसे समय में भी अपशकुन करने चली आयी।' अंजना आँखों में आँसू बहाती हुई महलों में चली गई, फिर भी पति के प्रति उसने कोई अनिष्ट कामना नहीं की, केवल अपने भाग्य को ही दोष देती रही।
पवनंजय वहाँ से आगे चले। मार्ग में एक वृक्ष के नीचे रात्रि-विश्राम किया। अधिक तनाव होने से रात का पहला प्रहर बीतने पर भी नींद नहीं आ रही थी। लेटे-लेटे करवटें बदलते रहे। उस समय एक चकवा-चकवी का जोड़ा अलग-अलग टहनियों पर आ बैठा था। चकवी अपने साथी के वियोग में बुरी तरह करुण क्रन्दन कर रही थी। उसक दिल बहलाने वाला आक्रन्दन सुनकर पवनंजय के दिल में उथल-पुथल मच गयी। चिन्तन ने मोड़ लिया। सोचा—एक रात के प्रिय-वियोग में ही इस चकवी की यह दशा है तो उस