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२२४ जैन कथा कोष
सुनते-सुनते ही उस सांप युगल ने प्राण त्याग दिये । वह सांप मरकर धरणेन्द्र देव बना तथा नागिन पद्मावती देवी बनी
तापस की निन्दा चारों ओर फैल गई। तापस मन-ही-मन 'पार्श्वकुमार' के प्रति रोष करके अन्य स्थान पर चला गया और घोर तप करने लगा। अन्त में मरकर भुवनपति देवों में मेघमाली देव हुआ । पार्श्वकुमार लोकांतिक देवों के द्वारा संकेत पाकर संयमी बनने को उद्यत हुए । तीस वर्ष की आयु में तीन सौ राजाओं के साथ प्रभु ने संयम ग्रहण कर लिया ।
एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार करते पार्श्व प्रभु एक बार एक तापस के आश्रम के पास ध्यानस्थ खड़े हो गये । उस समय वह कमठ का जीव मेघमाली देव प्रभु को ध्यान में खड़ा देखकर कुपित हो उठा । अपने पूर्व वैर की स्मृति करके अनेक उपसर्ग देने लगा, पर प्रभु ध्यान से कब विचलित होने वाले थे ! प्रभु को अविचल देखकर गाज और बीज के साथ मेघमाली देव धुआँधार वर्षा करने लगा । सोचा - प्रभु को पानी के पूर में बहा दूँगा। पानी ऊपर बढ़ता-बढ़ता प्रभु के कान तक पहुँच गया। प्रभु ध्यान में फिर भी अविचल हैं। पानीं नाक के अग्र भाग तक पहुँच गया, तब धरणेन्द्र का आसन चलित हुआ । उसने अवधिज्ञान से देखा, 'कमठ' का जीव 'मेघमाली' देव प्रभु को संतापित करने हेतु दुर्धर उपसर्ग कर रहा है। वह अपने धर्मोपकारी प्रभु की सेवा करने तुरन्त वहाँ आया । प्रभु को वन्दन करके चरण-कमल के नीचे आसन की भाँति एक स्वर्ण कमल बना दिया तथा अपने शरीर से प्रभु के शरीर को ढककर सात फण बनाकर प्रभु के लिए छत्र बना दिया ताकि प्रभु बिल्कुल ही सुरक्षित रह सकें । आसपास धरणेन्द्र देव की देवियाँ मधुर तान के साथ गीत-नृत्य करने लगीं। ‘मेघमाली' देव को जब अपना उपक्रम असफल होता नजर आया, तब वह प्रभु के चरणों में आ गिरा । धरणेन्द्र ने उसकी भर्त्सना करते हुए उलाहना दिया। मेघमाली ने अपने अपराध की प्रभु से क्षमा-याचना की। प्रभु तो समता में लीन रहे । अपकारी का भी तो वे उपकार ही करते हैं । उपसर्ग में अविचल रहकर केवलज्ञान प्राप्त किया । उपसर्ग के हरण करने वालों में ‘पार्श्वनाथ' भगवान् का नाम प्रमुख रूप से आज भी स्मरण किया जाता है।
केवलज्ञान प्राप्त करके प्रभु ने तीर्थ की स्थापना की। अनेक गणधरों में मुनि आर्यदत्त प्रमुख गणधर थे । सत्तर वर्ष तक केवल पर्याय का पालन कर