________________
जैन कथा कोष २२१
पारणा करने के लिए बैठे ही थे, इतने में साधु रूप में देव ने मुनि की भर्त्सना करते हुए कहा- 'देख लिया तेरा स्वभाव ! मेरे गुरुदेव अतिसार के रोग से आक्रान्त हैं, उपवन में पड़े हुए हैं और तू भोजनभट्ट बना हुआ है।' नंदीषेण मुनि यह बात सुनकर चौंके। अपनी भूल पर अनुताप करते हुए क्षमा माँगने लगे और कहा - " 'कहाँ हैं आपके गुरुदेव, मुझे बताइये ।' यों कहकर आहार को वहीं छोड़कर उस मुनि के साथ उद्यान में आये । वृद्ध मुनि की सफाई की और अपने स्थान पर चलने का आग्रह किया । वृद्ध मुनि कुपित होकर बोले— 'तुम्हें दिखता नहीं, मैं ऐसी स्थिति में कैसे चल सकता हूँ?'
नंदीषेण मुनि नम्रतापूर्वक मुनि को अपने कन्धों पर बैठाकर अपने स्थान की ओर चल पड़े । मार्ग में वृद्ध मुनि ने नंदीषेण का सारा शरीर दुर्गन्धमय मलमूत्र से भर दिया, फिर भी मुनि के एक रोम में भी कहीं घृणा, ग्लानि और रोष का भाव नहीं आया। चेहरे पर तनिक भी सिहरन न आयी ।
देव ने अपने ज्ञान-बल से मुनि की भावनाओं को अविचल पाकर अपना रूप बदला। दिव्य रूप में सामने हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। सेवा-भावना की मुक्तकण्ठ से सराहना करता हुआ देवेन्द्र के द्वारा की हुई प्रशंसा की सारी बात कही । नंदीषेण मुनि लम्बे समय तक सेवा में तल्लीन रहे । अन्तिम समय में अनशनपूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके आठवें स्वर्ग में गये । परन्तु अपनी दरिद्रावस्था तथा स्त्रियों के प्रति रही हुई आसक्ति को याद कर निदान कर चुके थे कि मैं अगले जन्म में अनेक स्त्रियों तथा अपूर्व लक्ष्मी का भोक्ता बनूँ । उसी `के परिणामस्वरूप देवलोक में च्यवन करके सौरीपुर नगर में अंधकवृष्णि राजा की पत्नी 'सुभद्रा' के पुत्र रूप में पैदा हुए। उनका नाम वसुदेव रखा गया । इस युग के चौबीस कामदेवों में से ये बीसवें कामदेव बने । कामदेव-सा इनका रूप देखकर अनेक स्त्रियाँ इन पर मोहित हो जातीं । ७२ हजार स्त्रियों के साथ इनका विवाह हुआ। एक महारानी थी जिसके पुत्र श्रीकृष्ण थे जो जैन जगत् में नौवें वासुदेव कहलाये ।
- आवश्यकचूर्णि —वसुदेव चरित्र