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२२० जैन कथा कोष 'नंदीषण' का रूप महाघिनौना था। पेट मोटा, नाक टेढ़ी, कान टूटा हुआ तथा
आँखें बेढंगी थीं। सिर के केश पीले, काला रंग और कद भी ठिगना था। कुल मिलाकर वह इतना कुरूप था कि लोग उसे देखते ही नाक-भौं सिकोड़कर पास से निकलते । सयोगवश माता-पिता भी बचपन में ही मर गये। वह अकेला पड़ गया। उसे असहाय और करुणा का पात्र समझकर मामा अपने यहाँ ले आया। वह वहाँ घर का सारा काम करता और पशुओं को चराता। ____एक बार अपने मामा के पुत्रों का विवाह होते देखकर वह भी विवाह के लिए मचल गया। मामा ने कहा—'मैं अपनी सात पुत्रियों में से एक का तुम्हारे साथ विवाह कर दूँगा, जो तुम्हें चाहेगी। पर मामा की सात पुत्रियों में से कोई भी उसके साथ विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुई। .
इस अपमान से नंदीषेण का दिल टूट गया। वह मामा के घर से निकल । गया और इस दु:खी जीवन से तंग आकर आत्महत्या करने की ठान बैठा। एक जंगल में जाकर पहाड़ से कूदकर मरना चाहता था कि इतने में सुस्थित मुनि वहाँ खड़े नजर आये। उसने मुनि को वन्दन किया। मुनि ने परिचय पूछा तो उसने आपबीती बताते हुए आत्महत्या करने की बात कही। मुनि ने आत्महत्या के कटु परिणाम बताते हुए धैर्य रखने को कहा—'देख, यह विषय-वासना, धन-सम्पत्ति किसके लिए सुखकर हुई है? फिर इनके लिए इतनी छटपटाहट क्यों?' उसका सोया वैराग्य जाग उठा। उसी समय साधुव्रत स्वीकार करके जीवनपर्यन्त बेले-बेले का तप करने का दुष्कर अभिग्रह कर लिया। केवल तप:साधना ही नहीं अपितु रोगी, ग्लान, वृद्ध मुनि की परिचर्या में अपने आपको सर्वात्मना लगा दिया। अपनी आहार-विहार आदि की सुख-सुविधा को गौण करके भी सेवा के लिए प्रतिक्षण तैयार रहने लगा। चारों ओर नंदीषेण मुनि के गुणों का बखान होने लगा। इनकी सराहना करते हुए जन-जन के मुँह पर एक ही आवाज थी—'सेवाभावना नंदीषेण मुनि जैसी अन्यत्र देखने में नहीं आयी।'
एक बार देवेन्द्र ने नंदीषेण मुनि की सेवा की सराहना अपनी देव-परिषद् में की। शक्रेन्द्र की बात की अवगणना करते हुए एक देव परीक्षा करने चला आया। एक रोगग्रस्त साधु का रूप बनाकर 'रत्नपुर' नगर के उपवन में जा बैठा और एक साधु का रूप बनाकर 'नंदीषेण' के पास आया। 'नंदीषेण' मुनि