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जैन कथा कोष १६३ से सजाकर उसके साथ विवाह कर दिया। सुकुमारिका के स्पर्श से जब उसका शरीर भी जलने लगा तब वह भी व्यथित होकर उसे छोड़कर चला गया। __ सुकुमारिका दुःखित हो उठी। अपने कर्मों को दोष देती हुई पिता की आज्ञा लेकर साध्वी बन गई। अपनी गुरुणीजी से उसने बेले-बेले तप और आतापना की आज्ञा चाही। गुरुणीजी ने कहा—'नगर के बाहर एकान्त में साध्वी के लिए आतापना लेना उचित नही होता है, अतः समुदाय के स्थान पर रहकर ही साधना करो।' सुकुमारिका ने गुरुणीजी की आज्ञा न मानी और नगर के बाहर उद्यान में आतापना लेने लगी।
एक दिन बगीचे में 'देवदत्ता' नामक वेश्या के साथ पाँच पुरुष क्रीड़ा कर रहे थे। उसे देखकर 'सुकुमारिका' ने निदान कर लिया कि यदि मेरे त्याग-तप का फल हो तो मुझे भी यों पाँच पति मिलें। यह संकल्प कर वह अपने स्थान पर आ गई। वहाँ रहकर वह चारित्र में दोष लगाने लगी। गोपालिका गुरुणी ने उसे टोका भी। तब वह स्वच्छन्द बनकर अन्य स्थान पर रहने लगी। अपने दोष की आलोचना किए बिना ही वहाँ से मृत्यु को प्राप्त होकर प्रथम स्वर्ग में देवी बनी।
वहाँ से 'पांचाल' देश के 'कांपिल्यपुर' नगर के महाराज 'द्रुपद' की रानी 'चूलनी' के उदर में जन्म लिया। इसका नाम 'द्रौपदी' रखा गया। जब द्रौपदी युवा हुई तो राजा ने स्वयंवर मण्डप की समायोजना की। अनेक देशों के महाराज वहाँ उपस्थित हुए। निदान किए होने के कारण द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों के गले में वरमाला डाल दी। पाँचों के साथ उसका विवाह हो गया। वह उन सबके साथ रहर्न लगी।
इसके बाद जब युधिष्ठिर जूए में राजपाट हार गये और इसे भी दाँव पर लगा दिया, तब कौरव सभा में इसे अपमानित होना पड़ा। यह पतियों के साथसाथ वन-वन भटकी । महाभारत युद्ध में पाण्डवों की विजय के बाद राजरानी बनी और आनन्द से रहने लगी। ___एक दिन 'द्रौपदी' के महल में 'नारद' मुनि आए। 'द्रौपदी' ने मुनि का समुचित आदर नहीं किया। नारदजी कुपित हो उठे और प्रतिशोध लेने की ठान ली। पर यहाँ भरतक्षेत्र में श्रीकृष्ण का वर्चस्व था, उनके होते हुए पाण्डवों पर कौन वक्र दृष्टि कर सकता था ! अतः धातकीखण्ड की अमरकंका नगरी के