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जैन कथा कोष १६१ पधारे। पुत्र-प्रेमवश ‘देवानन्दा' के स्तनों से सहसा दूध की धारा छूटी। रोमरोम पुलकित हो उठा।
यह अद्भुत दृश्य देखकर गौतम स्वामी ने प्रभु से पूछा-भगवन् ! ऐसा क्यों हुआ?
समाधान देते हुए भगवान् महावीर ने कहा—गौतम ! मैं इसके उदर में बयासी दिन-रात रहा हूँ। यह मेरी माता है। हरिणगमैषी देव के द्वारा मेरा साहरण त्रिशला के यहाँ हुआ।
प्रभु ने सारा वर्णन विस्तृत रूप में बताया। 'देवानन्दा' सुनकर पुलकित हो उठी। 'ऋषभदत्त' और 'देवानन्दा' दोनों ने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली और सभी कर्मों का क्षय करके दोनों ही मोक्ष पधारे।
-भगवती ६/३३
१०६. द्रौपदी 'चम्पानगरी' में तीन धनाढ्य ब्राह्मण रहते थे, जिनके नाम थे 'सोम', 'सोमदत्त' और 'सोमभूति'। इनकी तीन पत्नियों के नाम थे क्रमशः 'नागश्री', 'भूतश्री' और 'यक्षश्री'। तीनों भाईयों ने सोचा हमारा परस्पर प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ता रहे इसिलए भोजन हम सब साथ बैठकर किया करें तो अच्छा रहे। अतः यह निर्णय किया कि क्रमशः एक-एक दिन सबके यहाँ भोजन की व्यवस्था हो। वहीं सबका भोजन हो। उसी क्रम में एक दिन नागश्री की बारी थी। उसने विविध भाँति के व्यंजन बनाये। अनेक प्रकार के पकवान, मिष्टान्न आदि के साथ-साथ कई प्रकार के शाक भी थे। भरपूर घृत, मिर्च-मसालों से संयुक्त अलावु (तुम्बी) का साग बनाया। साग बनकर तैयार हो गया। थोड़ा-सा चखा तो पता लगा कि तुम्बी अत्यधिक कड़वी है, मानो जहर हो। नागश्री ने सोचा—यह तो अच्छा ही हुआ कि पहले चख लिया। भोजन में सबको परोस दिया जाता तो बड़ा अनर्थ हो जाता। मेरा उपहास भी होता और निन्दा भी। यही सोचकर उसने उस कड़वी तुम्बी का साग ढककर एक ओर रख दिया तथा दूसरा साग और बनाया। तत्क्षण तैयार करके सबको भोजन करा दिया।
कड़वी तुम्बी के साग को वह कहीं फेंकना चाहती थी। बर्तन खाली करना था। इतने में ही आचार्य धर्मघोष के शिष्य धर्मरुचि अणगार मासमास का तप करके पारणा लेने के लिए वहाँ आते दिखाई दिये। उन्हें आते