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१६० जैन कथा कोष मैंने लूटा है, जिनके सम्बन्धियों का वियोग मैंने किया है, वे तो सारे नगर में हैं। यदि मैं वहाँ रहूँ तो वे देखकर अपना प्रतिशोध मुझसे लेंगे। मुझे समता से सारे कष्टों को सहकर निर्जरा करने का अवसर मिलेगा। यों विचार कर नगर के पूर्वद्वार के पास ध्यानस्थ खड़ा हो गया दृढप्रहारी। ___ लोगों ने जब मुनि को मूक बने देखा तो कुपित होना ही था । लगे ताड़नातर्जना देने । दृढ़प्रहारी मुनि अपने कर्ज को उतारने का प्रसंग मानकर समता में लीन हो जाते। यों धीरे-धीरे लोगों का क्रोध शांत हुआ। अब लोगों में सहानुभूति जगी। धीरे-धीरे ताडना-तर्जना भी बन्द हो गयी। तब मुनि ने अपना द्वार बदल लिया। पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के द्वारों पर भी मुनिवर डेढ़-डेढ़ महीना ध्यानस्थ खड़े रहे। छः महीने तक भयंकर यातना को समता से सहा। तस्कर वृत्ति में कुशल थे तो मुनि वृत्ति में भी कुशलता का पूरा-पूरा परिचय दिया। तलवार का प्रहार करने में दक्ष थे तो कर्मों का भार उतारने में भी पराक्रमशील रहे। यों छ: महीने के तपश्चरण से सकल कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया।
-आवश्यक कथा
१०८. देवानन्दा 'देवानन्दा' ब्राह्मणकुण्ड नगर में रहने वाले 'ऋषभदत्त' ब्राह्मण की धर्मपत्नी थी। भगवान् महावीर दसवें स्वर्ग द्वार से च्यवकर ब्राह्मणी के गर्भ में पधारे। 'देवानन्दा' ने चौदह स्वप्न देखे।
तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल के सिवाय किसी अन्य कुल में नहीं होता है। इस बार भगवान् महावीर का जीव ब्राह्मण कुल में आया। यह आश्चर्यजनक घटना थी। जैसे ही इन्द्र को इस बात का पता लगा, उसने हरिणगमैषी देव को गर्भ साहरण का आदेश दिया। इन्द्र के आदेश से हरिणगमैषी देव आया। भगवान् को बयासीवीं रात में साहरण किया और महारानी 'त्रिशला' की कुक्षि में क्षत्रियकुण्ड नगर में लाकर रखा और 'त्रिशला देवी' के उदर में जो पुत्री थी उसे लाकर 'देवानन्दा' के उदर में रखा। उस समय 'देवानन्दा' को ऐसा लगा मानो पहले आये शुभ स्वप्न वापस लौटे जा रहे हैं। 'देवानन्दा' का शोकाकुल होना सहज ही था, पर यह सारा रहस्य गुप्त ही रहा। यह भेद तब खुला, जब भगवान् महावीर केवलज्ञान प्राक्त करके 'ब्राह्मणकुण्ड' नगर में