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________________ १८८ जैन कथा कोष दो मुख नजर आये, इसलिए महाराज 'जय' का नाम द्विमुख पड़ गया। चित्रशाला सांगोपांग तैयार कराई गयी। शुभ मुहूर्त में उसका उद्घाटनसमारोह हुआ। चित्रशाला के मध्य में एक इन्द्रध्वज आरोपित किया गया। अनेकानेक ध्वजाओं में वह इन्द्रध्वज बहुत ही मोहक लग रहा था। समारोह सम्पन्न हुआ। साज-सज्जा की सभी सामग्री यथास्थान रख दी गयी । इन्द्रध्वज वाले लकड़े को भी एक तरफ फेंक दिया गया। अब उसे कौन सँभाले ! एक ओर पड़े उस स्तम्भ पर मिट्टी जमने से वह विरूप-सा लग रहा था। महाराज द्विमुख ने सहसा उसे एक दिन देख लिया। पूछने पर महाराज को बताया गया कि यह वही इन्द्रध्वज वाला स्तम्भ है। यह सुनकर महाराज की तो भावना ही बदल गयी। चिन्तन चला—यह सारी शोभा पर वस्तुओं से है, सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से है अर्थात् अपने आप में कोई सुन्दरता नहीं है। सारी चमक-दमक उधार ली हुई है। ऐसी मोहकता मुझे नहीं चाहिए। पराये पूतों से कब घर बसा है? अपने आप में ही मुझे लीन हो जाना चाहिए। ___यों चिन्तन कर राजा द्विमुख सारे वस्त्राभूषणों को उतारकर पंचमुष्टि लोच करके महामुनि 'द्विमुख' बन गये। अद्भुत संयम और तप की साधना के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पद प्राप्त किया और प्रत्येकबुद्ध कहलाये।। -उत्तराध्ययन वृत्ति, ६/२ १०७. दृढ़प्रहारी 'दृढ़प्रहारी' का जन्म एक ब्राह्मण के घर में हुआ था। उसके पिता धार्मिक और नीति-निपुण व्यक्ति थे। पर उसी नीतिनिष्ठ पिता का पुत्र ऐसा निकला कि मद्यपान, मांस-भक्षण, चोरी, व्यभिचार आदि सातों दुर्व्यसनों में प्रतिपल रत रहता। पिता ने उसे प्यार से समझाया, दुत्कार से समझाया, पर वह नहीं समझा, तब उसे घर से निकाल दिया। वह भी क्रोधित होकर घर से निकल पड़ा। चलते-चलते एक चोर पल्ली में जा पहुँचा । डाका डालने में, लूटने में, किसी को मौत के घाट उतारने में वह वहाँ विशेष कुशल बन गया। उसकी कुशलता से प्रभावित होकर पल्ली-पति ने उसे अपना पुत्र मान लिया। प्रहार करने में दक्ष होने के कारण उसका नाम ही दृढ़प्रहारी रख दिया। धीरे-धीरे वह सारे गिरोह का स्वामी बन गया।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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