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________________ जैन कथा कोष १८५ सुबह जब रहस्य खुला तो सेठ सागरदत्त को बहुत दुःख हुआ। पर अब वह क्या कर सकता था? उसी ने तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी। कुछ दिन बाद शोक कम हुआ तो साधु की वाणी को सत्य मानकर सेठ सागरदत्त ने दामनक को अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का स्वामी बना दिया। अब दामनक के दिन सुख से व्यतीत होने लगे। उसकी सब विपत्तियाँ टल गयी थीं। ___एक दिन दामनक नाटक देख रहा था। नर्तकों ने मंच पर यह गाथा गायी अणुपुंखामावहतावि अणत्था, तस्स बहुफला हुंति। सह दुक्ख कच्छ पुडओ, जस्स कयंतो वहइ पक्खं॥ अर्थात्—पग-पग पर चाहे जितने अनर्थ और संकट क्यों न आयें, दु:खों की काली घटाएँ क्यों न आयें, पर जिसका भाग्य (कृतांत) अनुकूल है, पक्षधर है—उसको वे सब गुणकारी ही होते हैं। इस गाथा का चिन्तन करते हुए दामनक को अपना पिछला जन्म याद आ गया। उसने खुश होकर नर्तकों को एक लाख मुद्राएँ इनाम में दीं। नर्तकों ने तीन बार यह गाथा गायी और तीन लाख स्वर्ण मुद्राएं पायीं। राजा भी वहीं बैठा नाटक देख रहा था। जब उसने दामनक से इस तरह पैसा बहाने का कारण पूछा तो दामनक ने कहा—'इस गाथा को सुनकर मुझे अपने पिछले जन्म की स्मृतियाँ हो आयी हैं।' राजा की जिज्ञासा पर उसने अपना पिछला जन्म सुनाया___ गंगातट पर. मछुआरों की बस्ती थी। मैं मछुआरा था। मछलियाँ पकड़ना और उन्हें बेचकर परिवार का पालन करना, यही मेरा कार्य था। ___एक बार सर्दी की ऋतु थी। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। मछलियाँ पकड़कर जब संध्याकाल को मैं घर लौट रहा था तो एक वृक्ष के नीचे एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। सर्दी से इनका कुछ भी तो बचाव होगा, यह सोचकर मैं मुनि पर अपना जाल डाल आया। दूसरे दिन प्रात:काल जब मैं उनके पास पहुँचा, उन्होंने मुझे अहिंसा का माहात्म्य बताया। मैंने हिंसा न करने का नियम ले लिया। जब मैं मछली
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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