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जैन कथा कोष
जब इन्द्र राजा दशार्णभद्र के सामने से जाने लगा तो राजा ने सोचा-इसके सामने मेरी ऋद्धि तो कुछ भी नहीं है।
अपने से अधिक को देखकर व्यक्ति को अपनी सही स्थिति का ज्ञान हो जाता है। हन्त ! हन्त ! मैं व्यर्थ ही इतराया। अब मैं अपने मान की रक्षा कैसे करूँ? सोचा-हो न हो यह सब देवमाया है। उसे परास्त करने और अपना स्वत्व सुरक्षित रखने के लिए प्रभु के पास आकर मुनि बन गया।
यह सामर्थ्य शक्रेन्द्र में कहाँ? उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की। दशार्णभद्र के पैरों में पड़कर इस अद्भुत त्याग की मुक्तकण्ठ से स्तवना करते हुए क्षमा-याचना की। दशार्णभद्र मुनि अपने उत्कट तप के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में पधारे।
-ठाणांग वृत्ति १०
१०४. दामनक राजगृह में एक धनाढ्य सेठ रहता था। उसका परिवार भी बड़ा था और व्यापार भी काफी विस्तृत था। उसके दामनक नाम का एक ही पुत्र था। जब दामनक आठ वर्ष का हुआ तब सेठ के परिवार में महामारी का प्रकोप हो गया। पड़ोस के लोगों ने सोचा कि इस परिवार के संसर्ग से पूरे नगर में महामारी फैल सकती है। इसलिए उन्होंने रातोंरात सेठ के घर के चारों ओर तीखे काँटों की बाड़ खड़ी कर दी। इस बाड़ के कारण परिवार का कोई सदस्य न निकल सका और पूरा परिवार ही महामारी की चपेट में आ गया।
लेकिन जिसका आयुष्य बाकी होता है, वह किसी-न-किसी तरह बच ही जाता है। आठ वर्ष का दामनक भी किसी प्रकार काँटों की बाड़ में से निकल गया। वह जीवित तो बच गया, लेकिन अनाथ हो गया। अब वह भीख माँगकर खा लेता और सूनी हाट या मन्दिर की दहलीज पर सो जाता।।
एक रात कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी और दामनक दुकान के बाहर की सीढ़ी पर पड़ा काँप रहा था। उसी समय सागरदत्त अपनी दुकान पर किसी काम से आया। उसने एक बालक को ठंड से काँपते हुए देखा तो पूछा-तुम कौन हो?
दामनक ने बताया—मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई आश्रय नहीं है। सेठ सागरदत्त को उस पर दया आ गई। वह उसे अपने घर ले गया।