SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कथा कोष १६५ माकन्दी नामक सार्थवाह की पत्नी 'भद्रा' के आत्मज थे। दोनों ही बहुत बुद्धिमान तथा सुन्दर थे। युवावस्था में ग्यारह बार इन्होंने व्यापार-हेतु लवणसमुद्र की यात्रा की और अच्छा लाभ कमाया। पर आशा के इस पुतले को सन्तोष कहाँ? यह तो नित्य नये सुनहरे स्वप्न संजोये रहता है। बारहवीं बार लवणसमुद्र की यात्रा के लिए दोनों भाई फिर तैयार हुए। माता-पिता ने कहा—अब तक की तुम्हारी यात्राएं सब विधि सुखद रहीं, लाभप्रद रहीं। अब अधिक लोभ में न फंसकर यहीं रहो। किसी भी बात में अति नहीं होनी चाहिए। दोनों भाई माता-पिता की बात को नहीं मानते हुए यात्रा के लिए निकल पड़े। संयोग ऐसा बना कि इनकी नाव तूफान में बुरी तरह फंस गयी। पानी के थपेड़ों से नाव भंग होकर पानी में डूब गयी। नाव में बैठे अनेक व्यक्ति डूब गए। वे दोनों काठ के पट्टे के सहारे तैरते-तैरते एक द्वीप में पहुँचे गये, जिसका नाम रत्नद्वीप था। वहाँ बैठकर वे दोनों कुछ-कुछ स्वस्थ हुए। इतने में ही उसी द्वीप की रहने वाली रत्नद्वीपा देवी जो वहीं उस द्वीप के मध्य भाग में महलों में रहती थी, अपने अवधिज्ञान से उनके आने का पता जानकर हाथ में चमचमाती तलवार लेकर वहाँ आकर बोली-'अगर तुम दोनों मेरे साथ रहकर मेरी भावना की पूर्ति करो तो तुम्हें जीवित रख सकती हूँ' अन्यथा अभी इसी तलवार से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करती हूँ। बोलो, क्या कहना है?' उन दोनों ने भयभीत होकर उसकी बात स्वीकार कर ली। उसके साथ भोगोपभोग करते हुए वहाँ रहने लगे। ___ एक बार रत्नद्वीपा देवी को लवणसमुद्र की सफाई करने का आदेश लवणसमुद्र के स्वामी सुस्थित देव ने दिया। जब देवी वहाँ जाने लगी तब देवी ने उन दोनों से कहा—'आप यहाँ बैठे-बैठे यदि ऊब जाएं, मन उचट जाए तो अपने महल के चारों ओर बगीचे हैं, उनमें घूम आना। पर इतना ध्यान अवश्य रखना कि दक्षिण दिशा के उपवन में नहीं जाना । मैं भी काम निपटाकर जल्दी आने का यत्न करूँगी।' देवी के चले जाने के बाद इन दोनों के मन में आया-देखें तो सही उस दक्षिण दिशा में क्या है? देवी ने वहाँ जाने को मना क्यों किया है? मनुष्य की प्रवृत्ति होती है जिसके लिए निषेध किया जाता है, उसे देखने की ही उसे अधिक उत्सुकता हो जाती है। वे दोनों भी दक्षिण दिशा के
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy