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________________ १६४ जैन कथा कोष नहीं कर सकती थी । एक दिन महाराज के यहाँ किसी विशेष प्रसंग के कारण भोज था । विविध प्रकार की सुस्वादु सामग्री तैयार की गयी । खाने वाले सभी मुक्त कण्ठ से भोज्य सामग्री की सराहना कर रहे थे। महाराज ने जब 'सुबुद्धि' के मुँह से भोज्य सामग्री की प्रशंसा सुननी चाही तब उसका एक ही उत्तर था - ' ' इसमें ऐसा क्या है, महाराज ! यह तो पुद्गलों का स्वभाव ही है। इसमें प्रसन्नअप्रसन्न होने की कोई ऐसी खास बात नहीं है।' महाराज जितशत्रु को यह उत्तर समुचित न लगा और मन मसोसकर रह गया । एक दिन महाराज मन्त्री सहित एक खाई के पास से गुजरे। खाई में बहुत गन्दा पानी भारा था । उसकी दुर्गन्ध पास से गुजरने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए सिरदर्द का कारण बनी हुई थी। राजा नाक-भौं सिकोड़ते हुए और कपड़े से मुँह को ढककर खाई के पास से गुजरे। आगे निकलकर मन्त्री से कहा— 'कितनी दुर्गन्ध आ रही थी?' मन्त्री ने अपनी उसी सहजता से कहा - ' इसमें ऐसी क्या बात है? पुद्गलों का स्वभाव ही ऐसा है। अच्छे पुद्गल बुरे रूप में तथा बुरे पुद्गल अच्छे रूप में बदले जा सकते हैं । ' महाराज ने इसका प्रत्यक्ष परिवर्तन देखना चाहा । मन्त्री ने यथासमय बताने का वादा किया। खाई के उस गन्दे पानी को अनेक प्रयत्नों द्वारा साफ किया । सुगन्धित पदार्थों से उसे सुस्वादु, सुपाच्य और सुवासित बनाकर राजा को भोजन के समय पिलाने के लिए सेवक को आदेश दिया। महाराज ने भी उसे पीकर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की और कहा- ऐसा पानी आज से पहले क्यों नहीं .. पिलाया गया ? मन्त्री ने बात का सारा रहस्योद्घाटन किया, तब महाराज विस्मित रह गये । न्त्री का कहना सही जँचा । मन्त्री ने धीरे-धीरे धर्म का मर्म समझाया। राजा ने श्रावकधर्म स्वीकार किया । यथासमय मुनित्व स्वीकार करके लम्बे समय तक उसकी निरतिचार आराधना कर निर्वाण को प्राप्त किया । -ज्ञाता सूत्र १२ - उपदेश प्रासाद, भाग ४ ६१. जिनरक्षित - जिनपाल 'जिनरक्षित- जिनपाल' महाराज 'कूणिक' की 'चम्पानगरी' में रहने वाले
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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