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जैन कथा कोष १५१
वह पूर्णत: सुखी और वैभव से सम्पन्न गृहस्थ था ।
भगवान् महावीर के पास इसने भी श्रावकधर्म स्वीकार किया था । बारह व्रतों की स्वीकृति के साथ जीवन को भी इसने मोड़ दिया । गृहभार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंपकर धर्मध्यान में ही अपना अधिक समय बिताने लगा । एक दिन पौधशाला में बैठा धर्मध्यान में अवस्थित था । इतने में देव का भयंकर उपसर्ग उपस्थित हुआ । हाथ में चमचमाती तलवार लेकर चुलनीपिता की ओर लपका। डरावनी-सी सूरत बनाये अट्टहास करता हुआ बोला- ' अरे ढोंगी ! छोड़ जल्दी-से-जल्दी अपने इस पाखण्ड को; अन्यथा अभी एक ही वार में दो टुकड़े कर देता हूँ ।'
श्रावक चुलनीपिता अविचल रहा । देवतां ने उसे धर्म से विचलित करने के लिए फिर कहा- ' -' देख, तू अपनी जिद पर अड़ा हुआ है, और नहीं मानता है, तो चख इस हठ के फल को, –यों कहकर उसके बड़े पुत्र को वहाँ लाया— उसके टुकड़े-टुकड़े करके तेल के कड़ाहे में तलकर खून के छींटे चुलनीपिता के शरीर पर लगाये। फिर भी चुलनीपिता अडोल रहे ।
देव फिर भी नहीं मान रहा है। दूसरे पुत्र को, तीसरे पुत्र को भी लाकर उसी भाँति काट-काटकर गर्म लहू के छीटों को उसके शरीर पर फेंका । चुलनीपिता के प्रत्येक बार भयंकर वेदना होती है, पर बिल्कुल ही अविचल रहा । रोममात्र में किंचित् भी कहीं कमजोरी नहीं आयी ।
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चौथी बार देव ने उसकी माँ भद्रा को सामने लाकर खड़ा किया और धमकी दी कि अभी तेरे सामने ही तेरी माँ के टुकड़े किये देता हूँ । तब माता के प्रति अत्यन्त आदर और श्रद्धा के कारण चुलनीपिता विचलित हो उठा । .कोलाहल करता हुआ माँ को पकड़ने दौड़ा। देव गगन में चला गया। इसके हाथ में पास वाला एक स्तम्भ आया । कोलाहल सुनकर अन्दर से माँ दौड़कर आयी । कोलाहल करने का कारण पूछा। चुलनीपिता ने सारी बात कह डाली ।
माँ ने धैर्य बँधाते हुए कहा — पुत्र ! न तो तुम्हारे पुत्र को कोई ले गया है और न ही मुझे । वे तीनों यहाँ सकुशल हैं, मैं तेरे सामने खड़ी हूँ । लगता है कोई देव छलिया बनकर तेरी परीक्षा करने आया था । ऐसा करने से तेरा व्रत भंग हुआ है, अतः तू इसका प्रायश्चित करके व्रतों में पुनः दृढ़ हो । चुलनीपिता ने अपने मन में ममत्व की ग्रन्थि को शिथिल करने का