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११८ जैन कथा कोष चोंच में ले चला, पर भार अधिक होने से महारानी के सामने महलों में लाकर उसे गिरा दिया। रानी ने उसे पहचाना तब पता लगा—उसके भाई को, उनके पाँच सौ शिष्यों सहित पालक ने कोल्हू में पील दिया है। रानी बिसूर-बिसूरकर रोने लगी। विलाप करती हुई महारानी को देवता ने उठाकर प्रभु के समवसरण में पहुंचा दिया। वह वहाँ साध्वी बन गई। अवशेष सारे देश का खुरखोज ही नष्ट हो गया।
यह वही दण्डकारण्य है, जहाँ वनवास के समय राम, लक्ष्मण और सीता आये थे और लक्ष्मण के हाथों शम्बूक का अनायास ही वध हो गया था।
-निशीथचूर्णि -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ७
६६. खंधक (स्कंदक) परिव्राजक 'खंधक' सावत्थी (श्रावस्ती) नगरी में रहने वाले गर्दभालि परिव्राजक का शिष्य था। वैदिक परम्परा का सांगोपांग उसे परिज्ञान था। एक बार भगवान महावीर की परम्परा के एक 'पिंगल' नाम के निर्गन्थ से उसे मिलने का प्रसंग आया। पिंगल ने खंधक से कई प्रश्न पूछे—'खंधक ! लोक अन्त-सहित है या अन्त-रहित है? वैसे ही जीव, सिद्धिशिला तथा सिद्ध भी अन्त सहित हैं या अन्त रहित हैं? तथा किस प्रकार की मृत्यु से मरने पर संसार घटता है तथा किस प्रकार की मृत्यु से संसार बढ़ता है? __ खंधक इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका। दिल में एक प्रकार की अबूझ पैदा हुई।
इतने में सावत्थी नगरी में लोगों के मुँह से सुना—भगवान महावीर यहाँ से थोड़ी दूर ही कयंगला नगरी में पधारे हैं। यह संवाद पाकर खंधक भगवान महावीर के पास पहुँचने के लिए चल पड़ा।
उसके पहुंचने से पहले ही भगवान महावीर ने समवसरण में गौतम स्वामी को सम्बोधित करके कहा—'गौतम ! आज तुझे तेरा पूर्व-स्नेही खंधक मिलेगा और वह आने ही वाला है। पिंगल ने लोक आदि के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे। वह उत्तर नहीं दे सका, इसलिए वह यहाँ आ रहा है।'
गौतम ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए भगवान से पूछा-'भन्ते ! खंधक आपके पास साधुत्व स्वीकार करेगा?'