SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० जैन कथा कोष की क्षमा' का अंकन करते हुए अपने अकारण किये हुए क्रोध पर अनुताप किया । अनुताप के भावों में विशुद्धि आयी । तत्क्षण उन्होंने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । - आचारांग चूर्णि ५७. कूलबालुक मुनि धर्मज्ञ और शुद्ध आचरण वाले एक मुनि थे। उनका एक क्षुल्लक शिष्य था । वह शिष्य बन्दर के समान अविनीत और चपल था । वह अपने गुरु की शिक्षा न मानता। इस कान से सुन उस कान से उड़ा देता । एक बार विहार करते हुए गुरु-शिष्य — दोनों गिरिनगर आये और पर्वत पर साधना करते हुए श्रमणों की वंदना करने के लिए उज्जयंत गिरि पर चढ़े। वहाँ से लौटते समय गुरु आगे थे और शिष्य पीछे । उस चपल शिष्य ने पीछे से एक शिलाखण्ड लुढ़का दिया। शिला गिरने की आवाज से गुरु सावधान हो गये और उन्होंने अपने पैर फैला दिये । पाषाण खण्ड उनके पैरों के बीच से निकल गया। लेकिन गुरु के मुख से रोष-भरे वचन निकले 'पापी ! किसी स्त्री के संयोग से तेरा साधुव्रत भंग हो जायेगा ।' लेकिन शिष्य भी पूरा ढीठ था, बोला- 'मैं आपके कथन को सत्य न होने दूँगा । ऐसे निर्जन स्थान पर जाकर रहूँगा जहाँ स्त्री की परछाईं भी न पड़े।' यों कहकर वह क्षुल्लक शिष्य गुरु को छोड़कर एक निर्जन स्थान पर चला गया। वह स्थान पर्वतीय नदी का तट प्रदेश था । क्षुल्लक मुनि वहाँ रहता, महीने-पन्द्रह दिन में कोई यात्री वहाँ से निकलता तो पारणा कर लेता, अन्यथा कायोत्सर्ग में लीन रहता। बरसात के दिनों में वह पर्वतीय नदी जल के वेग से उफनने लगी। किसी जिनधर्मप्रेमी देवी ने यह सोचकर कि यदि नदी इसी प्रकार उफनती रही तो मुनि को लपेट १. ऋषिमण्डल प्रकरण वृत्ति (विश्राम १, पत्र १०० ) के अनुसार राजकुमार का नाम नागदत्त था । पूर्वभव में किये गये क्रोध के कटु परिणाम का जाति स्मृति के बल पर अनुभव कर क्षमा की आराधना में संलग्न हुआ तथा दीक्षा ली। पूर्वभव की घटना चंडकौशिक के पूर्वभव से मिलती-जुलती है। -सम्पादक
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy