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________________ जैन कथा कोप ६६ न होते देखकर भूख से बेहाल बने कूरगडुक मुनि व्याख्यान के बीच में ही गुरुवर के पास आदेश लेने आ गये। आचार्य को यह बात बहुत ही अटपटी लगी कि इस तप के रस-भरे वातावरण में कोई भोजन की बात करे । अतः बोले- ' अरे ! आज तो नन्हें मुन्नों ने भी व्रत रखा है। तुझे भी व्रत रखना चाहिए।' मुनि कूरगडुक — ' गुरुवर ! आप मेरे हित की बात ही फरमा रहे हैं, पर मैं व्रत रखने में असमर्थ हूँ । आप कृपा करिये ।' गुरुवर ने झिड़ककर कहा – 'जा, ले आ पात्र भरकर कूर भोजन । भर ले अपना पेट । ' मुनि फिर भी शान्त थे । आचार्य की ओर से यों अहेतुक अपमान से तनिक भी उनका मन म्लान नहीं था । सहसा गये और कूर ( निकृष्ट अन्न) से पात्र भर लाये, आकर गुरुजी को बताया। आचार्य ने कुपित होकर पात्र में थूक दिया । कूरगडुक मुनि एक ओर गये । पात्र को सामने रखा ! उन्हें अपने ही दोष दीख रहे थे — मेरे कारण आचार्यश्री को कष्ट हुआ। मुनि समता से भोजन कर रहे थे। भोजन करते-करते वे आत्म- ध्यान में लीन हो गये। हाथ वहीं का वहीं रुका रह गया । ध्यान की उज्ज्वलता तथा क्षमा की पराकाष्ठा थी । इतने में ही जैन शासन की सेविका चक्रेश्वरी देवी आयी । सन्तों से पूछा - 'कूरगडुक मुनि कहाँ हैं?" सन्त—'क्यों, क्या बात है? पहले आचार्यदेव के दर्शन तो करो । उस भोजनभट्ट में तुमको क्या विशेषता नजर आयी ?' देवी - 'मुझे तो उन्हीं के दर्शन करने हैं। सीमन्धर स्वामी ने बताया है, उन्हें केवलज्ञान होने वाला है। मैं उनके दर्शनार्थ ही आयी हूँ ।' सन्तों ने हँसते हुए कहा- ' वह बैठा है तेरा केवली । प्रभु क्या कभी ऐसी बात फरमा सकते हैं? ' देख्नी वहाँ गई। मुनि के दर्शन किये। मुनि ध्यान में लीन थे। गुणस्थान चढ़ते चढ़ते शुक्लध्यान में लीन मुनि कूरगडुक ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । देव-दुन्दुभियाँ बजने लगीं । देवता और देवेन्द्र कैवल्य महोत्सव मनाने उधर जाने लगे। आचार्य अवाक् रह गये । अपने आपको सँभाला । मन-ही-मन कूरगडुक
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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