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________________ जैन कथा कोष ८३ अपने रूप में कामदेव की स्तुति करता हुआ बोला—'कामदेव, तुम्हें धन्य है ! तुम्हारी दृढ़ता को धन्य है ! देवताओं की परिषद् में स्वयं शक्रेन्द्र ने तुम्हारी दृढ़ता की प्रशंसा की थी। मुझे इन्द्र की बात पर विश्वास न हुआ। इसलिए तुम्हारी दृढ़ता की परीक्षा लेने आया और तुम्हें उपसर्ग दिये, पर तुम्हारी दृढ़ता वैसी ही है, जैसी इन्द्र ने बताई थी। मैं तुमसे क्षमायाचना करता हूँ।' यों कहकर देवता अपने स्थान को चला गया। प्रात:काल जब पौषधशाला में कामदेव ने प्रभु महावीर के आगमन का संवाद सुना, तब पौषध में ही दर्शनार्थ चल पड़ा। भगवान् महावीर ने कामदेव के उपसर्गों की चर्चा करते हुए, उसकी दृढ़ता को सराहते हुए, साधु-सतियों को सम्बोधित करते हुए कहा—'आर्यों ! गृहस्थवास में रहने वाला श्रमणोपाक भी देवकृत उपसर्गों में यों दृढ़ रह सकता है, तब तुम लोगों को तो अविचल रहना ही चाहिए। कामदेव श्रावक ने धर्म-श्रद्धा का आदर्श उपस्थित किया कामदेव की दृढ़ता की चारों ओर प्रशंसा हुई। कामदेव ने अपने पौषध को पूरा किया तथा वह अपने श्रावकधर्म में और भी दृढ़ रहने लगा। उसने क्रमशः श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की। अपने व्रतों का निरतिचार पालन करके अनशनपूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया। सौधर्म स्वर्ग (प्रथम स्वर्ग) के अरुणाभ विमान में दिव्य-ऋद्धि वाला देव बना । वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करेगा। -उपासक दशांग, अध्ययन २ ४६. कार्तिक सेठ बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के समय में एक महान् समृद्धि-संपन्न सेठ था, जिसका नाम था 'कार्तिक'. वह धर्मनिष्ठ था। शुद्ध देव-गुरु-धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धाशील था। कार्तिक सेठ का व्यापार इतना फैला हुआ था कि उसके एक हजार आठ गुमाश्ते (मुनीम) काम करने वाले थे। __एक बार वहाँ के महाराजा के गुरु वहाँ आये। नगर के सभी लोग राजा के गुरु के दर्शनार्थ गये, पर कार्तिक सेठ नहीं गया। कार्तिक सेठ के किसी शत्रु ने राजा के गुरु के कान भरे कि जब तक 'कार्तिक' सेठ आपके दर्शनार्थ नहीं आता है, तब तक यहाँ औरों का आना न
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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