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उनके 48 ताले स्वयमेव ही टूट गये। अतः भक्त को अमर बनानेवाला यह स्तोत्र 'भक्तामर स्तोत्र' है ।
2. आदिनाथ स्तोत्र
इस स्तोत्र का मूल नाम आदिनाथ स्तोत्र है । इस स्तोत्र में आचार्य मानतुंग ने आदिनाथ भगवान की स्तुति की है, अत: इसे आदिनाथ स्तोत्र या ऋषभनाथ स्तोत्र कहा जाता है ।
रचनाकार का परिचय
भक्तिपूर्ण काव्य के सृष्टा कवि के रूप में आचार्य मानतुंग प्रसिद्ध हैं । आचार्य मानतुंग का समय ई. सन् 6-7वीं शताब्दी का माना जाता है। इनके जीवन-चरित्र के बारे में अनेक चर्चा प्रसिद्ध हैं, परन्तु एक विशेष कथा यह है कि
मालवा प्रान्त के उज्जैन नगर में राजा भोज का शासन था । राजा भोज ने आचार्य मानतुंग को शास्त्रार्थ करने राज्य सभा में बुलाया। चूँकि दिगम्बर साधु राजद्वार में जाते नहीं हैं, अतः आचार्य ने राजा की आज्ञा ठुकरा दी। बार-बार प्रयास करने भी जब आचार्य राजदरबार में नहीं गये तो सैनिक बलपूर्वक आचार्य को उठाकर राजदरबार में ले गये। आचार्य मानतुंग इसे उपसर्ग समझकर मौन धारण कर ध्यान में बैठ गये ।
राजा के बार-बार प्रयास करने पर भी जब आचार्य कुछ नहीं बोले तो अन्य दरबारीगण आचार्य को महामूर्ख सिद्ध करने लगे, तब राजा ने क्रोधित होकर उन्हें हथकड़ी और बेड़ी डलवाकर अड़तालीस कोठरियों के भीतर एक बन्दीगृह में कैद करवा दिया और मजबूत ताले लगवा दिए।
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मुनिश्री तीन दिनों तक बन्दीगृह में रहे । चौथे दिन भक्तामर स्तोत्र की रचना की, ज्यों ही स्वामी ने 48 काव्य पढ़े, त्यों ही हथकड़ी, बेड़ी और 48 ताले टूट गये और खट-खट सारे दरवाजे खुल गये। बार- बार ताले लगाए जाने पर भी पुनः सारे ताले खुलते गये और आचार्य मानतुंग राज्यसभा में जा पहुँचे।
तपस्वी मुनिराज के शरीर की आभा (चमक) के प्रभाव से राजा का हृदय काँप गया। उन्होंने आचार्य के चरणों में झुककर उनसे क्षमायाचना की। उन्होंने नाना प्रकार से आचार्य की स्तुति की और श्रावक के व्रत ग्रहण कर अपने राज्य में धर्म का खूब प्रचार किया ।
96 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय