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________________ महामण्डलीक का लक्षण बताया है। साथ ही अर्धचक्री, चक्रवर्ती और तीर्थंकर का भी लक्षण सरल शब्दों में समझाया है । इसके बाद प्रमाण-नय-निक्षेप आदि का स्वरूप बताया है । सम्पूर्ण विषय 132 गाथाओं में वर्णित है । इस ग्रन्थ में 9 अधिकार हैं, अधिकारों के अन्दर भी अनेक उपाधिकार हैं । इन नौ अधिकारों के अतिरिक्त उपाधिकारों की संख्या 180 हैं। इस ग्रन्थ का विषय विस्तार अत्यधिक है। 1. सामान्य लोकस्वरूप अधिकार (गाथा 153 ) इस अधिकार में प्रारम्भ में लोक का स्वरूप बतलाया है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, नित्य है और जीवाजीवों से सहित है। इस लोक में धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल द्रव्य जहाँ तक पाए जाते हैं, वहाँ तक लोक माना जाता है, उसके पश्चात् अलोकाकाश है और यह अनन्त है। लोक के कई आकार बतलाये हैं । अधोलोक की आकृति स्वभाव से वेंत के समान, मध्यलोक की आकृति खड़े किये हुए अर्धमृदंग के ऊपरवाले भाग के समान और उर्ध्वलोक की आकृति खड़े किये हुए मृदंग के समान है। इस अधिकार में तीन लोक की आकृति, प्रकार, विस्तार, ऊँचाई, चौड़ाई और मोटाई आदि का वर्णन किया है। तीन लोकों में स्थित पृथिवियों के नाम, भूमि, क्षेत्रफल, धनफल, मेरु और स्थान आदि का वर्णन विस्तार से दिया गया है। इस प्रकार लोक के स्वरूप को समझने के लिए यह अधिकार महत्त्वपूर्ण है । 2. नरकलोक अधिकार (गाथा 371 ) इस अधिकार में कुल 371 गाथाएँ हैं । मंगलाचरण में अजितनाथ भगवान को नमस्कार किया है। इस अधिकार में विस्तार से नरकलोक का वर्णन है। नारकियों के निवास स्थान के वर्णन में रत्नप्रभा, चित्रा आदि पृथिवियों, उनके भाग और उनका स्वरूप आदि का वर्णन है। नरक में बिलों की संख्या, बिलों के भेद, सातों पृथिवियों के विस्तार और स्वरूप आदि का वर्णन है । उसके बाद नारकियों की संख्या, नारकियों की आयु का प्रमाण, शरीर का वर्णन और नारकियों की अवस्था ( गुणस्थान अनुसार) आदि का वर्णन है । नारकी जीव नरक से निकलने के बाद कौन सी गति प्राप्त कर सकता है, उनके परिणाम तिलोयपण्णत्ती :: 89
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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