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________________ षट्खण्डागम ग्रन्थ के नाम का अर्थ छक्खण्डागम या षट्खडागम ग्रन्थ छह खंडों में विभक्त है, अतः इसका नाम षट्खण्डागम है । यह ग्रन्थ आगम के ग्रन्थों में विशेष महत्त्वपूर्ण एवं अद्भुत ग्रन्थ है । षट्खण्डागम का प्रकाशन षट्खण्डागम का प्रकाशन 16 भागों में भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी मथुरा से हुआ है। ग्रन्थकारों का परिचय I 1. आचार्य धरसेन : आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे । आचार्य धरसेन का समय ई. सन् की प्रथम शताब्दी है । उन्होंने दक्षिणापथ के आचार्यों को पत्र लिखकर इच्छा व्यक्त की थी कि दो योग्य शिष्य उनके पास भेज दें, क्योंकि अब श्रुत को लिपिबद्ध करना आवश्यक है । उसके बाद आचार्य धरसेन ने मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि इन दो शिष्यों की परीक्षा लेकर उन्हें सिद्धान्त की शिक्षा दी थी। आचार्य ने अपनी मृत्यु निकट जानकर पूर्ण शिक्षा हो जाने पर शिष्यों को श्रुत के संरक्षण के लिए वापस भेज दिया था। पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना कर उसे ग्रन्थरूप में निबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को उसकी पूजा की और इसी कारण यह पंचमी श्रुतपंचमी के नाम से विख्यात हुई । तत्पश्चात् भूतबलि आचार्य ने उस षट्खण्डागम ग्रन्थ को जिनपालित के साथ पुष्पदन्त गुरु के पास भेजा। षट्खण्डागम ग्रन्थ को देखकर पुष्पदन्त गुरु ने भी श्रुतभक्ति के अनुराग से पुलकित होकर षट्खण्डागम :: 77
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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