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________________ 7. उपयोग अधिकार सातवें अधिकार में यह समझाया गया है कि हमारे अन्दर जो मोह है, जो कषायें हैं, उनका और ज्ञान का आपस में क्या तालमेल रहता है । यह बात अच्छी तरह स्पष्ट की गयी है। 8. चतुःस्थान अधिकार आठवें अधिकार में इन चारों कषायों को चार-चार स्थानों में बाँटा गया है। उनको हलके और मन्दे स्थानों में बाँटा गया है। बताया है कि क्रोध चार प्रकार का होता है । एक क्रोध ऐसा होता है कि जो पानी की रेखा के समान होता है, तुरन्त खत्म हो जाता है। दूसरा बालू की रेत के समान होता है, हवा चले तो खत्म हो जाए। तीसरा कठोर पृथ्वी की रेखा के समान है। चौथा लोहे की रेखा के समान स्थिर है, जो कभी नहीं मिटता । इस तरह से बहुत अच्छे से चारों कषायों को समझाया गया है। बहुत ही रोचक और सरल प्रकरण है । 9. व्यंजन अधिकार नौवें अधिकार में कषायों के बहुत सारे पर्यायवाची होते हैं, बहुत सारे रूप होते हैं, रूपों को विस्तार से समझाया है । कषायों को आसानी से समझना हो तो इस ग्रन्थ का यह अधिकार बहुत ही उपयोगी है। 10. दर्शनमोहोपशमनाधिकार दसवें अधिकार में दर्शनमोह का दोष कैसे दूर होता है, दबता है, उपशम होता है । इस क्रिया को समझाया गया है। 11. दर्शनमोहक्षपणाधिकार ग्यारहवें अधिकार में उसी श्रद्धा सम्बन्धी कर्म के नष्ट होने की विधि समझाई गयी है। 12. देशविरत अधिकार बारहवें अधिकार में यह समझाया गया है कि जब हमारा श्रद्धा सम्बन्धी दोष चला जाता है, तब कैसे हमारा जीवन ऊपर-ऊपर उठने लगता है। हमारे जीवन में कैसे धवला, महाधवला और जयधवला :: 75
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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