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________________ का है। श्रद्धा के दोष को दर्शनमोह कहते हैं और चारित्र के दोष को चारित्रमोह कहते हैं। चारित्रमोह अनेक प्रकार का है। उनमें मुख्य हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। ये मुख्य रूप से चारित्रमोह के भेद हैं। चारित्रमोह दो तरह का है-एक है राग, दूसरा है द्वेष। चारित्रमोह या राग-द्वेष का अर्थ है-किसी को इष्ट या अनिष्ट, अच्छा या बुरा, प्रिय या अप्रिय समझना। दुनिया में वास्तव में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है। इष्ट या अनिष्ट नहीं है। प्रिय या अप्रिय नहीं है। लेकिन यह जीव चारित्रमोह के कारण पदार्थों को अच्छा-बुरा समझता रहता है। राग-द्वेष करता रहता है। चारित्र में मोह करना छोड़ दे तो इसकी आत्मा शुद्ध हो जाए, धवल हो जाए। राग और द्वेष में भी मुख्य चार कषाय आती हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। क्रोध और मान ये दोनों द्वेष हैं और माया और लोभ ये दोनों राग हैं। पहले द्वेष जाता है, फिर राग जाता है। किसी चीज से नफरत करना, उसे बुरा समझना, अप्रिय समझना, ये द्वेष है। किसी को अच्छा समझना, प्रिय समझना ये राग है। इन राग-द्वेष को यदि हम जीत सके, तो हम चारित्रमोह को भी जीत सकते हैं। मोह एक प्रकार का नशा है। मोह को आचार्यों ने मदिरा की उपमा दी है। जैसे-कोई व्यक्ति शराब पी लेता है, तो वह स्वयं को भूल जाता है कि मैं कौन हूँ और फिर दूसरे को भी नहीं जान पाता है। यह है दर्शनमोह। इस प्रकार से मोह दो तरह का है। एक मोह श्रद्धा सम्बन्धी है। दूसरा मोह चारित्र सम्बन्धी है। इस ग्रन्थ में इस मोह को दूर करने की विस्तारपूर्वक शिक्षा दी गयी है। विस्तार से समझाया है कि मोह होता क्या है, इसके उदय से क्या-क्या होता है। क्रोध क्या है, मान क्या है, इनका बहुत विस्तार से वर्णन है। यदि कोई इस ग्रन्थ को पढ़े, तो वह आश्चर्यचकित हो जाएगा कि अभी तक विज्ञान भी इतनी सूक्ष्मता से मन के विकारों को नहीं समझ पाया है, जैसा इस ग्रन्थ में समझाया है। इसमें मन के अन्दर तक पहुँचकर गहराई से कहाँ-कहाँ मोह बैठा रहता है, बताया है। कई बार जीव मुनि बन जाता है, फिर भी उसका मोह छूटता नहीं है। उसका मोह काम करता रहता है, यह सब बातें बहुत विस्तार से समझाई हैं। इसलिए यह ग्रन्थ बहुत ही जरूरी और प्रयोजनभूत है। इसको समझने के बाद जीव का मोह नष्ट हो जाता है। जो जीव इस ग्रन्थ का स्वाध्याय अच्छे से धवला, महाधवला और जयधवला :: 73
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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