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गुणस्थानों में आलाप को समझाया है।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में बाईस अधिकारों में सरल रूप से 14 गुणस्थानों और 14 मार्गणाओं का विस्तृत वर्णन किया है।
___ 2. गोम्मटसार कर्मकाण्ड इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में कर्म का आशय, जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप, जीव
और कर्म का सम्बन्ध, जीव और कर्म का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, कर्म का कर्ता-भोक्ता कौन है, कर्म के भेद और कर्मशास्त्र ही अध्यात्म शास्त्र है, आदि अनेक विषयों पर चर्चा की गई है। कर्म के प्रकार कर्म दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। 1. जैन धर्म में केवल जीव के द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्मों का ही नाम
कर्म नहीं है, किन्तु जीव के कर्मों के निमित्त से आकृष्ट होकर जो पुद्गल परमाणु अन्य दूसरे जीव से बन्ध को प्राप्त होते हैं वे भी कर्म कहे जाते हैं।
इन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। 2. किसी कर्म के निमित्त से जीव को जो काम, क्रोध, मान, माया और लोभ
आदि भाव होते हैं, वे भी कर्म कहे जाते हैं। इन्हें भावकर्म कहते हैं।
कर्म का आशय हम प्रतिदिन देखते हैं कि जो जीवित हैं, एक क्षण में ही वे मरण को प्राप्त हो जाते हैं और उनका स्थान नये प्राणी ले लेते हैं। जीवन और मरण की यह प्रक्रिया
अनादि से चली आ रही है। साथ ही देखने में आता है कि संसार में कितनी विषमता है। कोई अमीर है, कोई गरीब है। कोई रोगी है, कोई कुरूप है। कोई दुखी है, कोई सुखी है। कोई बुद्धिमान है, कोई मूर्ख है। एक ही माँ के बच्चों में भी यह भिन्नता पाई जाती है। इसका क्या कारण है ? यही कर्मवाद है।
जैनदर्शन कर्म के सिद्धान्त पर बहुत बल देता है और उसके अस्तित्व, भेद, अवस्थाएँ, बन्ध, मुक्ति एवं उसके कारण आदि सभी पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
64 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय