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________________ 2. जीवसमास अधिकार जीवसमास : जिनके द्वारा जीव संग्रहीत (इकट्ठे) किए जाते हैं, वे जीवसमास हैं अर्थात् समस्त संसारी जीवों के संग्रह को जानना जीवसमास है। इस अधिकार में जीवसमास का लक्षण, जीवसमास की उत्पत्ति के हेतु, जीवसमास के संक्षेप और विस्तार से भेद और जीवसमास के चार अधिकार समझाए हैं। सम्मूर्छन जीव, समस्त संसारी जीव, नारकी जीव आदि के जन्मभेद, योनि भेद शरीर एवं पर्याप्ति आदि का वर्णन इस अधिकार में है। 3. पर्याप्ति अधिकार पर्याप्ति : शक्ति की निष्पत्ति (स्थिति) को पर्याप्ति कहते हैं। जैसे-लोक में घर, घट, वस्त्र आदि द्रव्य कुछ पूर्ण होते हैं, कुछ अपूर्ण होते हैं, वैसे ही जो जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों (शक्तियों) से पूर्ण होते हैं, वे पर्याप्तक जीव कहलाते हैं और जो जीव सर्व पर्याप्तियों से रहित होते हैं, वे अपर्याप्तक जीव माने जाते हैं। __इस अधिकार में छह पर्याप्तियों (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन) के भेद और उनके स्वामियों का वर्णन विस्तार से किया है। 4. प्राण अधिकार जीव के जो भाव होते हैं, वे ही भावप्राण हैं। द्रव्यप्राण श्वास आदि हैं। द्रव्यप्राण बाहरी होते हैं और भावप्राण आन्तरिक होते हैं। प्राण का अर्थ समझाने के बाद इस अधिकार में प्राण और पर्याप्ति में भेद बताया है। उसके बाद प्राणों के भेद, उनके स्वामी और एकेन्द्रिय आदि जीवों में प्राणों की संख्या बताई हैं। 5. संज्ञा अधिकार संज्ञा अर्थात् वांछा या इच्छा करना है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-इन चार की इच्छा को संज्ञा कहते हैं। इस अधिकार में इन चारों इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण बताए हैं और उनके स्वामी कौन हैं, ये भी बताया है। गोम्मटसार :: 57
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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