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________________ पुत्री रोहिणी का स्वयंवर हो रहा था। स्वयंवर में जरासंध जैसे महापराक्रमी राजा और वसुदेव के बड़े भाई समुद्रविजयादि भी आए हुए थे। रोहिणी ने अपनी वरमाला वसुदेव के गले में डाली। इससे उपस्थित सभी राजा बहुत कुपित हुए और वसुदेव से युद्ध करने लगे। वसुदेव ने सबको हरा दिया। समद्रविजय और वसुदेव में युद्ध प्रारम्भ हुआ। वसुदेव तो समुद्रविजय को पहचानते थे, किन्तु समुद्रविजय वसुदेव को नहीं पहचानते थे; अतः समुद्रविजय ने वसुदेव को विविध दिव्यास्त्रों से पराजित करने की पूरी कोशिश की, परन्तु वसुदेव ने उनके समस्त दिव्यास्त्रों को असफल कर दिया और अन्त में अपने नाम की पर्ची अपने बाण में बाँधकर समुद्रविजय के चरणों में पहुँचा दी। समुद्रविजयादि सभी भाई वसुदेव को पाकर गद्गद हो गये। शौरीपुर पहुँचकर वसुदेव का अद्भुत स्वागत किया गया। शौरीपुर में वसुदेव ने अनेक प्रबुद्ध राजकुमारों को शस्त्रविद्या सिखाई। ___ एक बार वसुदेव अपने कंसादिक शिष्यों के साथ जरासन्ध को देखने के लिए राजगृह नगरी में गये। वहाँ राजा जरासन्ध ने यह घोषणा कर रखी थी कि जो सिंहपुर के राजा सिंहस्थ को बन्दी बनाकर लाएगा, उसे मैं अपनी पत्री जीवद्यशा और इच्छित देश का राज्य दूंगा। वसुदेव ने अपने कंसादिक शिष्यों सहित सिंहपुर पहुँचकर राजा सिंहस्थ को घेर लिया। कंस ने उसे बन्दी बना लिया। इससे वसुदेव ने प्रसन्न होकर कंस से वर माँगने के लिए कहा। कंस ने उस वर को यथेष्ट अवसर पर माँग सकने के लिए वसुदेव के ही भंडार में रख दिया। जब वसुदेव राजा सिंहस्थ को बन्दी बनाकर जरासन्ध के पास ले गये, तो जरासन्ध वसुदेव को अपनी पुत्री देने के लिए तैयार हुआ, पर वसुदेव ने बताया कि इसे बन्दी मैंने नहीं, कंस ने बनाया है, अतः पुत्री उसे दी जाए। जरासन्ध ने कंस से उसका कुल पूछा। कंस ने इतना ही बताया कि मेरी माँ कौशाम्बी नगरी की कलाली मंजोदरी है। राजा जरासन्ध को इसमें सन्देह हुआ। उसने मंजोदरी को बुलवाया। मंजोदरी ने बताया कि मुझे तो यह यमुना नदी में बहती हुई इस पिटारी में मिला है, जिसके साथ यह मुद्रिका भी थी, मैं इसकी माँ नहीं हूँ। राजा जरासन्ध ने मुद्रिका पढ़ी-"यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती का पुत्र है, जो गर्भ में आते ही क्लेशकारी हुआ है और अशुभ नक्षत्र में उत्पन्न हुआ है। इसके कर्म इसकी रक्षा करें।" इस प्रकार जरासन्ध ने कंस को अपना भानजा जानकर अपनी पुत्री जीवद्यशा प्रदान कर दी। मुद्रिका पर लिखे कथन से कंस को भी अपनी सत्य जीवनी अभी ही पता चली। उसे अपने पिता उग्रसेन पर बड़ा क्रोध आया। उसने राजा जरासन्ध से 48 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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