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________________ पृथ्वीमती नाम की महादेवी से दो पुत्र उत्पन्न हुए।ज्येष्ठ पुत्र अनन्तरथ और छोटे पुत्र का नाम दशरथ था। राजा अरण्य एक माह के दशरथ पुत्र को ही राज्य सौंपकर अनन्तरथ पुत्र के साथ दीक्षा ले लेते हैं। एक बार नारद राजा दशरथ और राजा जनक को सचेत करते हैं कि रावण अपनी मृत्यु का कारण आप दोनों के पुत्र-पुत्री को जानकर आपका वध करने का विचार कर रहा है। तब वह दोनों ही राजा घर से बाहर निकलकर समय काटते हैं, विभीषण इनके पुतलों को ही राजा समझकर मार देते हैं। अनन्तर राजा दशरथ को कैकया रानी स्वयंवर में वर लेती है और राजाओं के साथ युद्ध में कैकया के सहयोग से राजा दशरथ विजयी होते हैं। प्रसन्न होकर राजा दशरथ कैकया को दो वरदान देते हैं, जिसे वह भंडारगृह में सुरक्षित रखती है। राजा दशरथ की चार रानियाँ थीं। रानी अपराजिता (कौशल्या) से 'पद्म (राम)', सुमित्रा से 'लक्ष्मण', रानी कैकया से 'भरत' और सुप्रभा रानी से 'शत्रुघ्न' पुत्र उत्पन्न होते हैं। राजा दशरथ चारों पुत्रों को शिक्षा और गुण प्रदान करने के लिए योग्य अध्यापक के पास भेज देते हैं, जिससे वे सभी सर्वशास्त्रविषयक अतिशय पूर्णज्ञान और पांडित्य से युक्त हो जाते हैं। राजा जनक की विदेहा रानी से एक पुत्र और एक पुत्री का जन्म होता है। पूर्वभव के बैर के कारण महाकाल असुर उनके पुत्र का अपहरण कर उसे आकाश से नीचे गिरा देता है। चन्द्रगति विद्याधर और पुष्पवती रानी उस पुत्र को अपना पुत्र मानकर बहुत उत्सव मनाते हैं और उसका नाम भामंडल रखते हैं। राजा जनक अपनी पुत्री का नाम जानकी (सीता) रखते हैं, वह लक्ष्मी के समान अत्यन्त रूपवती दिखाई देती थी। राजा जनक सीता का विवाह राजा दशरथ के प्रथम पुत्र श्रीराम से निश्चित कर देते हैं। एक बार नारद सीता के असत्कार से दुखी होकर उससे बदला लेने के भाव से उसका चित्रपट बनाकर रथनूपुर नगर के राज उद्यान में छोड़ देते हैं। उस चित्रपट को देखकर भामंडल सीता पर मोहित हो जाता है और राजा जनक को सीता के साथ विवाह कराने पर विवश करते हैं, तब राजा जनक "यदि राम वज्रावर्त धनुष चढ़ा देंगे तो सीता ले सकेंगे अन्यथा भामंडल लेगा" यह शर्त रखते हैं, तब राम धनुष चढ़ाकर सीता की रत्नमाला प्राप्त करते हैं। लक्ष्मण का विवाह भी अठारह हजार कन्याओं से, भरत का विवाह जनक के भाई कनक की पुत्री लोकसुन्दरी के साथ होता है। पद्मपुराण :: 35
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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