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________________ अनुयोगद्वार अन्तराय अन्तरात्मा अन्तराधिकार अपरिमित अमूर्तिक अवगाहन अवधिज्ञान अवसर्पिणीकाल अविरति अविरत सम्यग्दृष्टि अशुचिता असि : अधिकार विभाजन या अध्याय। : मुनि को आहारादि के समय कोई विघ्न या बाधा आना।--- : जो शरीरादिको अपना नहीं मानता और अपने अन्तरंग ज्ञानतत्त्व को ही अपना मानता है। : अधिकार या अध्याय के अन्दर छोटे-छोटे अन्य अधिकार या अध्याय होना। : जिसको नापा न जा सके। : जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण न पाया जाए। : जगह या स्थान। : इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा से रूपी पदार्थों का ज्ञान होना। : ऐसा समय जिसमें जीवों का शरीर, बल, ज्ञान, आयु आदि धीरे-धीरे कम होता जाता है। : व्रत धारण नहीं करना। : जिसे सम्यग्दर्शन है, पर व्रत धारण नहीं किये। : अपवित्र, गन्दा। : शस्त्रकला। : वीतराग-सर्वज्ञ तीर्थंकर की वाणी। : गरम प्रकाश, जैसे- सूर्य का प्रकाश। : अपने को पीड़ा देना। अपनी हिंसा करना। : आत्मा का आकार। : आयु बन्ध के भाव। : दुखमय होने वाले ध्यान। : प्राणियों को पीड़ा देनेवाले कार्य। : निर्मल परिणामवाले भव्यजीव। : मरण, संन्यास या समाधि। : जिसकी आराधना की जाती है। : वर्तमानकाल के दोषों की शुद्धि। : इन्द्रियों से प्राप्त सुख। : इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान। आगम आतप आत्मघात आत्मा के प्रदेश आयुबन्धक भाव आर्तध्यान आरम्भ आराधक आराधना आराध्य आलोचना इन्द्रियसुख इन्द्रियज्ञान 274 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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