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दोषों का परित्याग करते हैं, इसलिए ध्यान ही वास्तव में सभी अतिचारों का प्रतिक्रमण है। इसके बाद इस अध्याय में ध्यान के भेद का वर्णन किया है । अन्त में कहा है कि शुद्ध सम्यग्दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को सम्पूर्ण स्वीकार करनेवाले जीव को ही निश्चय ( परमार्थ) प्रतिक्रमण होता है।
प्रतिक्रमण : भूतकाल के दोषों की शुद्धि करना । प्रत्याख्यान : भविष्यकाल के दोषों की शुद्धि करना । आलोचना : वर्तमान काल के दोषों की शुद्धि करना ।
6. निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार (गाथा 95 -106 )
प्रत्याख्यान अर्थात् भविष्यकाल के दोषों की शुद्धि करना ।
व्यवहार प्रत्याख्यान में काल/ समय की मर्यादा लेकर अन्न, पान, खाद्य और चारों प्रकार के अन्न का यथासम्भव त्याग करते हैं।
शुद्धज्ञान की भावना के लिए निश्चय प्रत्याख्यान में समस्त शुभाशुभ कर्मों का त्याग किया जाता है।
मेरे अतिरिक्त सभी पदार्थ पर हैं, ऐसा जानकर त्याग करना प्रत्याख्यान है । अर्थात् अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है ।
इस अध्याय में अपने विभाव अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों और राग-द्वेष का त्याग करने को प्रत्याख्यान कहा है। मात्र बाहर से ही नहीं अपितु आन्तरिक एवं आध्यात्मिक त्याग का ही नाम निश्चय प्रत्याख्यान है।
7. परम आलोचना अधिकार ( गाथा 107-113 )
नोकर्म और द्रव्य कर्म से रहित आत्मा को जो ध्याता है, उस जीव को शुद्ध आलोचना होती है। इसे निश्चय आलोचना भी कहते हैं ।
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आलोचना चार प्रकार की होती है। चारों ही एक आत्मा का रूप है। आलोचना : जो जीव समता भाव के परिणाम रखकर अपनी आत्मा को देखता है (जानता है) वह आलोचना है।
आलुंछन : कर्मरूपी वृक्ष का मूल छेदने में समर्थ - आत्मा का जो समता भाव है, वही आलुंछन है अर्थात् समस्त कर्मों को समता भाव से नष्ट करना और आत्मतत्त्व को प्राप्त करना आलुंछन है । अविकृतिकरण : जो मध्यस्थ भावना में कर्म से भिन्न आत्मा का निवास है उसी का नाम अविकृतिकरण है अर्थात् आत्मा को कर्म से 254 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
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