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________________ नहीं जुड़ सकते वे स्कन्ध अतिस्थूल-स्थूल हैं। (2) दूध, जल आदि जो टूटकर फिर मिल जाते हैं, वे स्कन्ध स्थूल हैं । (3) धूप, छाया और चाँदनी जो दिखाई तो देते हैं, पर हाथ से पकड़ने में नहीं आते। वे स्कन्ध स्थूल सूक्ष्म है। (4) नेत्र को छोड़कर जो शेष चार इन्द्रियों से ग्रहण किए जाते हैं, वे स्कन्ध सूक्ष्म-स्थूल हैं । जैसे - रस, गन्ध आदि । (5) जो कर्म वर्गणा हमें मिली हुई हैं, पर कथमपि दिखाई नहीं देती, वह सूक्ष्म-स्कन्ध हैं । (6) जिसका दूसरा भाग नहीं होता, जो टूटते नहीं हैं, वे परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म हैं। 1 पुद्गल के वर्णन के बाद धर्म, अधर्म, आकाश और काल का वर्णन किया है। 3. शुद्धभाव अधिकार ( गाथा 38 से 55 तक ) वास्तव में शुद्ध भाववाला है । कोई भी अशुद्ध भाव वास्तव में जीव में नहीं पाए जाते हैं। आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - ये सब पराधीन और परसापेक्ष भाव हैं, इसलिए अशुद्ध भाव हैं । शुद्ध भाव तो पारिणामिक भाव है, निष्क्रिय भाव है, यही शुद्धभाव है । इस अध्याय में शुद्धभाव का वर्णन है। शुद्धभाव का मतलब यहाँ क्षायिकभाव नहीं, पारिणामिक भाव है । इस विषय का विस्तार से वर्णन इस अध्याय में मिलता है। 4. व्यवहारचारित्र अधिकार ( गाथा 56-76 ) इस अधिकार में पाँच अणुव्रत, षट् आवश्यक, तीन गुप्ति और पंच परमेष्ठियों के स्वरूप का वर्णन है । जिसे हम पूर्व में विस्तार से लिख चुके हैं । (देखें पृष्ठ 27, 28, 130, 131, 167) 5. परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार ( गाथा 77-94 ) भूतकाल के दोषों को दूर करने के लिए जो प्रायश्चित्त किया जाता है वह प्रतिक्रमण है । इस अधिकार में निश्चय प्रतिक्रमण की बात कही है। परमार्थ प्रतिक्रमण की बात है। जो जीव अपने आत्मा की आराधना करता है, वही प्रतिक्रमण है । वही आत्मा बन्धनमुक्त है । अर्थात् सच्चा जो शुद्ध आत्मा का सेवन करता है वही वास्तव में परमार्थ - प्रतिक्रमण करता है। ध्यान में लीन साधु सब नियमसार :: 253
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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