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गणधर और अनेक आचार्यों की परम्परा से यह ग्रन्थ चला आ रहा है। इसलिए इस ग्रन्थ का नाम समयपाहुड है।
ग्रन्थकार का परिचय आचार्यों की परम्परा में कुन्दकुन्दाचार्य का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इनकी गणना ऐसे युगसंस्थापक आचार्य के रूप में की गयी है, जिनके नाम से उत्तरवर्ती परम्परा कुन्दकुन्द आम्नाय के नाम से प्रसिद्ध हुई है। किसी भी कार्य के प्रारम्भ में मंगलरूप में इनका स्तवन किया जाता है।
"मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी।
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम्।।" अर्थात् भगवान् महावीर मंगल हैं, गौतम गणधर मंगल हैं, कुन्दकुन्द आचार्य मंगल हैं और जैनधर्म भी मंगल रूप है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी माना जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द अध्यात्मशास्त्र के महान प्रणेता एवं युगसंस्थापक आचार्य थे। द्रव्यानुयोग के क्षेत्र में अभी तक इन जैसा प्रतिभाशाली, अध्यात्मयोगी दूसरा आचार्य नहीं है।
बाल्यावस्था से ही कुन्दकुन्द प्रतिभाशाली थे। इनकी विलक्षण स्मरणशक्ति और कुशाग्रबुद्धि के कारण लौकिक शिक्षा में इनका अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ। मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में ही मुनिराज के वचनों से विरक्त होकर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की और 33 वर्ष की अवस्था में इन्होंने आचार्य पद प्राप्त किया। आचार्य कुन्दकुन्द के पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छये पाँच नाम प्रचलित हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द के जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ भी प्रचलित हैं, जिनसे उनके जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
आचार्य जयसेन ने टीका के प्रारम्भ में कुन्दकुन्द के पूर्व विदेह में जाने की कथा की ओर भी संकेत करते हुए लिखा है कि इन्होंने पूर्वविदेह में वीतरागसर्वज्ञ सीमन्धर स्वामी के दर्शन किये थे। उनके मुखकमल से निकली दिव्यध्वनि को सुनकर अध्यात्मतत्त्व का सार ग्रहण कर वे वापस लौटे। उसके बाद सीमन्धर स्वामी से प्राप्त दिव्यज्ञान का श्रमणों को उपदेश दिया था।
रचनाएँ दिगम्बर साहित्य के महान प्रणेताओं में आचार्य कुन्दकुन्द का मूर्धन्य स्थान है।
समयसार :: 229